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ग़ज़ल...कभी तो दिल को करार आये-बृजेश कुमार 'ब्रज'

121 22 121 22 121 22 121 22
कभी जरा सा मैं मुस्कुरा लूँ कभी तो दिल को करार आये
कभी तो भूले से इस चमन में उतर के फ़स्ल-ए-बहार आये

कि इससे पहले ये साँस टूटे सफ़ीना डूबे ये ज़िन्दगी का
चले भी आओ सनम कहीं से कहाँ कहाँ हम पुकार आये

बड़ी अदा से नजर झुकाये वो पूछते हैं कहाँ थे अब तक
सुनाये कैसे वो आपबीती वो ज़िन्दगी जो गुजार आये

हजार लम्हे हजार बातें जिन्हें तड़पता ही छोड़ आया
वो शाम वो गेसुओं के साये वो याद फिर बेशुमार आये

समझ न आये विदाई की भी ये रीत कैसी है प्यारे बाबुल
अभी घड़ी खेलने की आई उठाये डोली कहार आये

अभी समेटे थे हौंसले 'ब्रज' तभी ये वैरन थकान आई
हमारे जीवन में ऐसे लम्हे न जाने क्यों बार बार आये
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 26, 2018 at 7:38pm

आदरणीय तिवारी जी बस आप लोगों को पढ़ कर ही सीखने की कोशिश कर रहा हूँ..बहुत बहुत आभार

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 26, 2018 at 7:35pm

आदरणीय लक्षमण धामी सादर प्रणाम स्वीकारें..

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 26, 2018 at 7:35pm

आदरणीय समर कबीर जी प्रणाम..आपके सुझाव बहुत ही खूबसूरत हैं..उन्हें लेकर सुधार करता हूँ..तीसरे शेर को आदरणीय वैसे ही रखना चाहता हूँ..उमर को लेकर मुझे शंका थी लेकिन कई जगह इस शब्द का प्रयोग देखा..कुछ फ़िल्मी गीत जैसे आवारगी फ़िल्म से "बाली उमर ने मेरा हाल ये किया" और एक दूजे के लिए से "सोलह बरस की बाली उमर को सलाम" इसके अलावा रेख्ता पर भी कुछ ग़ज़लें पढ़ी जिसमें ये शब्द प्रयुक्त हुआ है..कृपया शंका समाधान करें..मक़्ते में पहले वही था जो आपने सुझाया लेकिन बाद में बदलाव कर दिया..बहरहाल अब आपके बताये अनुसार सुधार करता हूँ।सादर

Comment by Ajay Tiwari on March 26, 2018 at 7:33pm
आदरणीय बृजेश जी, इस बहर को बरतना आसन नहीं. इसमें आपने अच्छे अशआर निकाले है. हार्दिक बधाई.
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 26, 2018 at 7:21pm

ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीय सुशील जी..सादर

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 26, 2018 at 7:20pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुरेन्द्र इंसान जी..

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 26, 2018 at 7:20pm

उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय शर्मा जी..सादर

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 26, 2018 at 7:19pm

आदरणीय नीलेश जी आपकी बारीक़ नजर काबिले तारीफ है..सुधार किया है..बहुत बहुत शुक्रिया..

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 26, 2018 at 6:20pm

आ. भाई बृजेश जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on March 26, 2018 at 6:07pm

जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' साहिब आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

मतले के सानी मिसरे में 'रंगीं बहार' की जगह "फ़स्ल-ए-बहार" कर लें,क्योंकि  पहले 'भूले से' का ज़िक्र है, यानी बहार आती नहीं,और बहार फीकी तो होती नहीं रंगीन ही होती है,इसी मिसरे में 'सफ़ीना छूटे' को "सफ़ीना डूबे" करलें ।

दूसरे शैर के ऊला मिसरे में 'कि' शब्द भर्ती का लग रहा है,क्योंकि जुमला यूँ सही होता है 'इससे पहले कि साँस टूटे' इसका विकल्प तलाश करें ।

'सुनाएं कैसे वो आप बीती वो ज़िन्दगी जो गुज़ार आये'

इस मिसरे को यूँ करलें तो गेयता बढ़ जायेगी:-

'सुनाएँ कैसे वो आप बीती जो ज़िन्दगी हम गुज़ार आये'

5वें शैर के सानी मिसरे में सही शब्द है "उम्र" देखियेगा ।

'कि मेरे जीवन में ऐसे लम्हे न जाने क्यों बार-बार आये'

इस मिसरे में 'कि'शब्द भर्ती का है, इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-

'हमारे जीवन में ऐसे लम्हे न जाने क्यों बार-बार आये'

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