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सराबोर कर दे तेरे रंग से अब----होली विशेष

122 122 122 122

मुझे ढ़ाल दे अपने ही ढंग से अब
सराबोर कर खुद के ही रंग से अब

ज़रूरी है  ख़श्बू फ़िज़ाओं में बिखरे
बदन की तुम्हारे मेरे अंग से अब

न मुझसे चला जा रहा होश में है
तू मदहोश कर रूप की भंग से अब

है महफ़िल में भी मन हमारा अकेला
उमंगें इसे दे तेरे संग से अब

न जाने है कैसी जो मिटती नहीं है
मनस सींच तू प्रीत की गंग से अब

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 26, 2018 at 4:20pm

आदरणीय श्याम नारायण सर सादर आभार

Comment by Shyam Narain Verma on March 4, 2018 at 10:27am
बहूत खूब पसंद हार्दिक बधाई l सादर
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 4, 2018 at 9:04am

आदरणीय लक्ष्मण सर सादर आभार

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 3, 2018 at 11:15pm

हार्दिक बधाई..

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 2, 2018 at 10:44pm

आदरणीय आरिफ सर, अवश्य

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 2, 2018 at 10:44pm

आदरणीय बाऊजी समर कबीर सर, आपका सुझाव उचित है, अभी सुधारता हूँ

Comment by Mohammed Arif on March 2, 2018 at 10:40pm

आदरणीय पंकज मिश्रा जी आदाब,

                      ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का तत्काल प्रभाव से संज्ञान लें ।

                                          रंग पर्व होली की शुभकामनाएँ ।

Comment by Samar kabeer on March 2, 2018 at 7:49pm

अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,होली पर अच्छी ग़ज़ल का तुहफ़ा दिया आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

मतले के ऊला मिसरे में दो बार 'अब' शब्द खटक रहा है,और दोनों मिसरों में 'तेरे' शब्द भी खटक रहा है,मुनासिब समझें ऊला मिसरा यूँ कर सकते हैं:-

'मुझे ढाल दे तू इसी ढंग से अब'

तीसरे शैर के सानी मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है, और जहाँ तक मेरी जानकारी है सही शब्द "भांग" है,देखियेगा ।

'अकेला बहुत है ये महफ़िल में भी मन'

इस मिसरे को यूँ कर लें तो साफ़ हो जायेगा:-

'है महफ़िल में भी मन हमारा अकेला'

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