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सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में (ग़ज़ल)

2122 1212 22

सब हैं मसरूफ़ अब उड़ानों में
देखिये भीड़ आसमानों में

प्यार? ईमान? दोस्ती? जी हाँ
सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में

भुखमरी,बालश्रम,अशिक्षा..सब
मिट चुके हैं फ़क़त बयानों में

पत्थरों से उन्हीं की यारी है
जो हैं शीशे-जड़े मकानों में

सच्चे हीरे की है तलाश अगर
जा! भटक कोयले की खानों में

बच्चे लड़-भिड़ के खेलने भी लगे
गुफ़्तगू बंद है सयानों में

फ़र्श से अर्श पर मैं जा पहुँचा
कितनी ताक़त है देखो तानों में

उसकी यादों की कूक गूँजे जब
मिश्री घुलती है दिल के कानों में

शायरी ने शुमार कर डाला
नाम तेरा भी "जय" दीवानों में

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by जयनित कुमार मेहता on October 24, 2017 at 12:34pm
आप सभी आदरणीय गुणीजनों को बहुत बहुत साधुवाद!!
मेरी रचना को समय व मान देने के लिए मैं आप सब का हार्दिक आभारी हूँ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 29, 2017 at 4:36pm
वाह आदरणीय जयनित जी क्या खूबसूरत ग़ज़ल कही है..सादर बधाई
Comment by Samar kabeer on September 27, 2017 at 9:49pm
जी,आपने सही निर्णय लिया है,ये अशआर हटा दें ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 27, 2017 at 9:41pm
आदरणीय भाई जयनित जी बहुत बढ़िया प्रयास है
समर सर की प्रतिक्रिया के माध्यम से बहुत कुछ सीखने को मिला।
बच्चे लड़-भिड़ के खेलने भी लगे
गुफ़्तगू बंद है सयानों में। यह शेर दिल को भा गया
आदरणीय नीरज जी की प्रतिक्रिया में मिल की जगह मिट की बात की गयी है मुझे तो मिल ही सही लगा देखिये इस पर आदरणीय समर सर से मार्गदर्शन जरूर मिलेगा आपको हार्दिक बधाई सादर
Comment by Niraj Kumar on September 27, 2017 at 9:31pm

आदरणीय जयनित जी. 

खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.

जनाब समर कबीर साहब ने 'मिट चुके हैं फ़क़त बयानों में' की जगह जो मिसरा सुझाया है उसमे शायद गलती 'मिट' की जगह 'मिल' हो गया है.

उसकी यादों की कूक गूँजे जब
मिश्री घुलती है दिल के कानों में

अगर यादें कूक सकती हैं तो दिल के कान भी हो सकते हैं. मेरे ख़याल से अपने काव्यात्मक तर्क के हिसाब से शेर ठीक है. 'यादों की कूक' 'दिल के कानों में' ही गूँज सकती है हमारे वास्तविक कानों में नहीं .

सादर 

Comment by जयनित कुमार मेहता on September 27, 2017 at 9:25pm
आदरणीय समर कबीर जी, प्रणाम!
इस मंच पर ग़ज़ल साझा करने के बाद इन आँखों को जैसे आप ही की टिप्पणी का इंतजार रहता है।

आपके मार्गदर्शन के बाद मुझे लग रहा है कि "बयानों" और "कानों" वाले शेर बहुत ज़रूरी नाहीं लग रहे हैं, सो इनको हटा रहा हूँ ग़ज़ल से। जहाँ तक तनाफुर की बात है तो मजबूरी में शायर इस दोष के साथ शेर कह ही सकता है न? सो इसे मजबूरी ही समझिए।
मक़्ते में जो सुधार अपेक्षित है, वह मैं कर लूंगा आदरणीय।
एक बार फिर बहुत बहुत नमन आपको।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on September 27, 2017 at 9:18pm
आदरणीय सुरेंद्र नाथ जी, नमस्कार! उत्साहवर्धन के लिए आपका बहुत-बहुत आभारी हूं। धन्यवाद!
Comment by रामबली गुप्ता on September 27, 2017 at 8:28pm
बधाई स्वीकार करें
Comment by रामबली गुप्ता on September 27, 2017 at 8:27pm
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही आपने आदरणीय जयनित भाई जी
Comment by Mahendra Kumar on September 27, 2017 at 8:05pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है आ. जयनित जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

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