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कुछ खूबसूरत पल--लघुकथा

अब से मैं पूरा ध्यान रखूंगी मुकुल का, बहुत परेशान हो जाते हैं आजकल, उसके दिमाग में पूरे दिन यही घूम रहा था| जब से बेटी पैदा हुई थी, उसे एकदम व्यस्त रख रही थी, समय तो जैसे पंख लगा कर उड़ जाता था| बेचारे मुकुल खुद ही सब कुछ करते रहते थे, कभी कुछ कहते नहीं थे लेकिन उसे तकलीफ होती थी| आखिर कभी भी मुकुल को कुछ करने जो नहीं दिया था उसने|
"कपडे आयरन नही हैं, ओह फिर याद नहीं रहा", कहते हुए आज सुबह जब मुकुल ने सिकुड़े कपडे पहने तो उसे थोड़ी खीझ हुई| जल्दी से उसने नाश्ता निकालने का सोचा तभी बच्ची रोने लगी|
"नाश्ता किचन से लेकर खा लेना", बोलती हुई वह भागी|
"तुम मेरी चिंता मत करो, बेटी को देखो", और मुकुल ने नाश्ता लिया और आकर उसे देखने लगे| उसे पता ही नहीं चला कि कब वह आया और उसे देखने लगा, वह तो बेटी में ही खोयी थी|
"चलता हूँ, शाम को कुछ लाना तो नहीं है", मुकुल ने पूछा तो उसे उसके आने का एहसास हुआ|
"नहीं ठीक है, मैं दिन में ले आउंगी, तुम जल्दी आने की कोशिश करना", उसने मुस्कुराते हुए कहा| जाते जाते एक बार फिर पलटकर मुकुल ने बेटी को देखा और मुस्कुराते हुए निकल गए|
शाम को किसी तरह उसने नाश्ता बनाया और चायपैन गैस पर रखकर वह अभी बैठी ही थी कि बेटी जग कर रोने लगी| उसे लेने कमरे में गयी थी कि घंटी बजी| गोद में बेटी को लिए हुए उसने दरवाजा खोला और बैग रखकर मुकुल ने बेटी को लेना चाहा| लेकिन बेटी चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी, उधर चाय भी गैस पर चढ़ी हुई थी|
"तुम इसे चुप कराओ, शायद भूखी है, मैं कपडे बदल लेता हूँ तब तक", बोलता हुआ मुकुल कमरे में चला गया|
थोड़ी देर बाद उसे लगा कि कमरे में कोई है तो सामने मुकुल ट्रे में नाश्ता और चाय लेकर खड़ा था| उसे अपने आप पर एक बार फिर झेंप आयी और वह खड़ा होना चाह रही थी कि मुकुल ने उसे रोका और ट्रे रखकर बैठ गया|
"तुम नहीं जानती कि तुम्हें इस तरह देखना कितना सुखकर होता है मेरे लिए", कहकर मुकुल ने उसके बाल सहला दिए और बेटी के गाल पर धीरे धीरे हाथ फेरने लगा| वह धीरे से मुकुल के गोद में सर रखकर लेट गयी, बेटी भी सोते सोते मुस्कुरा रही थी और चाय ट्रे में ठंडी हो रही थी|
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on September 25, 2017 at 6:35pm

बहुत बहुत आभार आ नीता कसार जी 

Comment by Nita Kasar on September 25, 2017 at 4:14pm
वाकई वे पल खूबसूरत होते है जो खुशियों के साथ जिम्मेदारियां व सामंजस्य बनाये रखने का अहसास दिलाते है ।बधाई इस कथा के लिये आद० विनय सिंह जी ।
Comment by विनय कुमार on September 25, 2017 at 3:01pm

बहुत बहुत आभार आ महेंद्र कुमार जी, देखता हूँ| शुक्रिया 

Comment by विनय कुमार on September 25, 2017 at 1:21pm

बहुत बहुत आभार आ मोहतरम जनाब समर कबीर साहब 

Comment by Mahendra Kumar on September 25, 2017 at 1:20pm

अच्छी लघुकथा है आ. विनय जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. मुझे थोड़े से संपादन की आवश्यकता प्रतीत हो रही है. सादर.

Comment by Samar kabeer on September 25, 2017 at 10:56am
जनाब विनय कुमार जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by विनय कुमार on September 25, 2017 at 10:02am

बहुत बहुत आभार आ डॉ विजय शंकर जी 

Comment by विनय कुमार on September 25, 2017 at 10:02am

बहुत बहुत आभार आ कल्पना भट्ट जी 

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 25, 2017 at 1:53am
आदरणीय विनय जी , शायद जिम्मेदारियां बढ़ने के साथ लोग यही नहीं कर पाते हैं और मुस्कुराना भूल जाते हैं। एक बहुत ही सुन्दर और प्रेरक प्रस्तुति। हार्दिक बधाई , सादर ,
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 23, 2017 at 2:20pm

बहुत अच्छी कथा हुई है आदरणीय विनय सर ,एक बच्चे की परवरिश में माता पिता दोनों का ही सहयोग होता है , बहुत अच्छे विषय पर लिखी है आपने | बधाई आपको |

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