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ग़ज़ल नूर की -जैसे धुल कर आईना फ़िर चमकीला हो जाता है,

22/ 22/ 22/ 22/ 22/ 22/ 22/ 2 
.
जैसे धुल कर आईना फ़िर चमकीला हो जाता है,
रो लेता हूँ, रो लेने से मन हल्का हो जाता है.
.
मुश्किल से इक सोच बराबर की दूरी है दोनों में,
लेकिन ख़ुद से मिले हुए को इक अरसा हो जाता है.
.
फोकस पास का हो तो मंज़र दूर का साफ़ नहीं रहता,
मंजिल दुनिया रहती है तो रब धुँधला हो जाता है.
.
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे में कोई काम नहीं मेरा
अना कुचल लेता हूँ अपनी तो सजदा हो जाता है.
.
ख़ुद की जानिब क़दम बढ़ाये जाता हूँ मैं सदियों से, 
कभी सफ़र में फ़ानी दुनिया में रुकना हो जाता है.
.
यादों के नन्हे छौने जब चरते हैं माज़ी की दूब
पीछे पीछे फिरता ये मन चरवाहा हो जाता है.
.
हरदम लड़ता रहता है हर बात पे मुझ से मेरा दिल
और मेरे पीछे हटते ही समझौता हो जाता है.
.
जब वो गले लगाता है तो रूह महकती है मेरी,
बारिश की पहली बूँदों से घर सौंधा हो जाता है.
.
“नूर” वली से लगते हो जब मैख़ाने के होते हो 
लेकिन दुनिया के होते ही सच झूठा हो जाता है..
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 2200

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 17, 2017 at 9:52pm
शुक्रिया आ सुरेंद्र जी
Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 17, 2017 at 9:51pm
आ नीरज जी,
एक बीमारी का इलाज एक ही दवाई से किया जाता है।
आगे भी यही शेर आपको कई बार पढ़ने को मिल सकता है।
आपके साथ समस्या यह है कि आप ख़ुद शाइरी नहीं करते और अनुचित शब्दों के साथ अपनी सलाह थोपते हैं।
यह सब मामला अयोध्या के धोबी वाले प्रसंग की याद दिलाता है।
आप से उम्मीद है कि आप निहित संदेश को समझेंगे और आइन्दा टिप्पणी शिल्प पर करेंगे न कि यह जताएंगे कि आप को नाश्ते, खाने में क्या पसन्द है, क्या नहीं। यहाँ इच्छा भोज की कोई व्यवस्था नहीं की गई है।
आभार
Comment by Niraj Kumar on September 17, 2017 at 7:33pm

आदरणीय निलेश जी,

अमीर इमाम का शेर जो आप बार बार कोट करते है एक खराब शेर है जो शायरी के लिए ब्लाइंड फैन की मांग करता है .अंधभक्ति  कही भी हो सिर्फ बुरे परिणाम देती है. अंधी प्रशंसा बेहतर शायर के लिए जहर होती है.

सादर 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 17, 2017 at 6:10pm

बहुत ही प्यारी ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय निलेश भैया |

ख़ुद की जानिब क़दम बढ़ाये जाता हूँ मैं सदियों से,
कभी सफ़र में फ़ानी दुनिया में रुकना हो जाता है.
.
यादों के नन्हे छौने जब चरते हैं माज़ी की दूब
पीछे पीछे फिरता ये मन चरवाहा हो जाता है.
.
हरदम लड़ता रहता है हर बात पे मुझ से मेरा दिल
और मेरे पीछे हटते ही समझौता हो जाता है.

बहुत खूब | मुझे यह शेर बेहद पसंद आये हैं | हार्दिक बधाई आपको इस ग़ज़ल के लिए |

Comment by Samar kabeer on September 17, 2017 at 3:28pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'जैसे धुल कर आईना फिर चमकीला हो जाता है
रो लेता हूँ रो लेने से मन हल्का हो जाता है'
आपका ये मतला पढ़ कर मुझे 'महशर इनायती'रामपुरी का ये शैर याद आ गया :-
'जिस तरह बादल निखर जाएँ बरस जाने के बाद
आज आँसू बह के दिल का बोझ कुछ हल्का हुआ'

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 17, 2017 at 1:47pm

आ. नीलेश भाई , अच्छी गज़ल कही , हार्दिक बधाई ।

Comment by SALIM RAZA REWA on September 17, 2017 at 12:31pm
जनाब नीलेश नूर साहिब ,उम्दा गज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं,
Comment by MUKESH SRIVASTAVA on September 17, 2017 at 11:53am

यादों के नन्हे छौने जब चरते हैं माज़ी की दूब 
पीछे पीछे फिरता ये मन चरवाहा हो जाता है. bahut khoobsoort - dheron badhaee is pyaree rachna ke liye

Comment by नाथ सोनांचली on September 17, 2017 at 4:12am
आद0 नीलेश भाई जी सादर अभिवादन, यह ग़ज़ल आपकी वाकई बेहद दमदार है। हर एक शैर ऐसा की उसपर एक पूरी किताब लिखी जासके ।दिली मुबारकबाद कबूल फरमायें। सादर
Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 16, 2017 at 10:16pm

शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ साहब 

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