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ग़ज़ल - अब हक़ीकत से ही बहल जायें ( गिरिराज भंडारी )

2122  1212   22 /122
मंज़रे ख़्वाब से निकल जायें

अब हक़ीकत से ही बहल जायें

 

ज़ख़्म को खोद कुछ बड़ा कीजे

ता कि कुछ कैमरे दहल जायें

 

तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब

कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें

 

मेरे अन्दर का बच्चा कहता है  

चल न झूठे सही, फिसल जायें

 

शह’र की भीड़ भाड़ से बचते

आ ! किसी गाँव तक निकल जायें

 

दूर है गर समर ज़रा तुमसे

थोड़ा पंजों के बल उछल जायें

 

चाहत ए रोशनी में दम है अगर

जुगनुओं की तरह से जल जायें   

*****************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 26, 2017 at 10:32pm

बहुत खूबसूरत अशआर 

Comment by SALIM RAZA REWA on August 24, 2017 at 8:24pm
शह’र की भीड़ भाड़ से बचते
आ ! किसी गाँव तक निकल जायें.. Khoobsurat. .Mubarakbad.

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2017 at 6:53pm
आदरनीय नरेन्द्र भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभार !
Comment by narendrasinh chauhan on August 24, 2017 at 6:19pm

खूबसूरत गज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2017 at 6:09pm

आदरनीय बृजेश भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2017 at 6:09pm

आदरनीय रवि भाई , गज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभार ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 24, 2017 at 5:22pm
वाह क्या खूबसूरत ग़ज़ल हुई है आदरणीय..बेहतरीन
Comment by Ravi Shukla on August 24, 2017 at 12:39pm

आदरणीय गिरिराज भाई जी अच्‍छी गजल कही आपने मुबारक बाद पेश है । सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2017 at 10:36am

आदरनीय सुरेन्द्र भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2017 at 10:35am

आदरनीय आरिफ भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।

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