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122 122 122 122
ख़यानत की खातिर मुहब्बत नहीं है ।
मेरी आशिकी क्या अमानत नहीं है ।।

हुई दफ़अतन जो ख़ता थी नज़र से ।
हमें अब नज़र से शिकायत नहीं है ।।

मिटा कर चले जा रहे हैं उमीदें ।
बची आप में भी सराफ़त नहीं है ।।

चले आइये बज्म में रफ्ता रफ्ता ।
मेरी आप से अब अदावत नहीं है ।।

ठहर जाने वाले यकीं कर मेरा तू ।
मेरे दिल की अब तक इज़ाजत नहीं है ।।

तेरे दर पे आना मुनासिब कहाँ अब ।
वहां आशिकों की निज़ामत नहीं है ।।

बुरे दिन की शुरुआत होने लगी है ।
दुआवों में शायद इज़ाफ़त नहीं है ।।

गुजर जाएंगे मुफ़लिसी के ये दिन भी ।
बुरा वक्त भर है कयामत नहीं है ।।

करेगा वो इंसाफ जुल्मो सितम का ।
तुम्हारी वहां तो हुकूमत नहीं है ।।

न उम्मीद रखिये वफ़ा की यहां पर ।
यहां तो ख़ुदा की अक़ीदत नहीं है ।।

उसे दिल न देना है कमसिन जिगर वो ।
मुहब्बत की कोई हिफ़ाज़त नहीं है ।।

जिधर फेरते हैं अदा से वो नज़रें ।
उधर कोई बस्ती सलामत नहीं है।।

---नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on August 8, 2017 at 6:34pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के ऊला मिसरे में 'ख़यानत' को "ख़ियानत" कर लें ।
Comment by Gajendra shrotriya on August 8, 2017 at 12:38pm
बहुत खूबसूरत अशआर हुए है आ० नवीन जी।बहुत बधाई।
Comment by Mohammed Arif on August 8, 2017 at 10:22am
जिधर फेरते हैं अदा से वो नज़रें ।
उधर कोई बस्ती सलामत नहीं है।। वाह! वाह!! बहुत ही बढ़िया शे'र
हर शे'लाजवाब है । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल कीजिए आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी ।
Comment by Ravi Shukla on August 8, 2017 at 9:44am

आदरणीय नवीन जी बहत बढि़या गजल कही है आपने मुबारबाद पेश करते हैं ।

गुजर जाएंगे मुफ़लिसी के ये दिन भी ।
बुरा वक्त भर है कयामत नहीं है ।।  क्‍या कहने इस शेर के बहुत बढि़या

सातवें शेर में तकाबुले रदीफ हो रहा है देख्‍ाियेगा

Comment by santosh khirwadkar on August 8, 2017 at 9:02am

आदरणीय नवीन जी , बहुत खूब !!

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