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देखो मंज़िल से क़दमों की बस इतनी सी दूरी है
माना मुश्किल होता है पर पहला क़दम ज़रूरी है

पग-पग पर हम सही ग़लत चुन
अपना जीवन गढ़ते हैं
छोटे-छोटे लक्ष्य भेद कर
उसमें ख़ुशियाँ मढ़ते हैं
झूठा है हर एक बहाना झूठी हर मजबूरी है

आधे मन से अगर बड़े तो
बस भटकन ही पाएँगे
नहीं छँटेगा कभी धुँधलका
राहों में खो जाएँगे
जीत हार की बात व्यर्थ है कोशिश अगर अधूरी है

लक्ष्य अगर तय कर लें तो फिर
सच्ची लगन लगानी होगी
जिसमें मन दिन रात जल सके
ऐसी अगन जलानी होगी
मंज़िल उनको ही मिलती है जिनकी लगन फितूरी है

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 3, 2017 at 9:24am
अच्छी रचना के लिए बहुत बधाई। कविता सदैव मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाह करती आई है,इसी परंपरा के अनुरूप आपकी यह रचना स्वागत योग्य है।
Comment by Samar kabeer on August 2, 2017 at 4:09pm
मोहतरमा प्राची साहिबा आदाब,अच्छा गीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
दूसरे बन्द की पहली पंक्ति'आधे मन से अगर बड़े तो'
"आधे मन से अगर बढ़े तो" शायद टंकण त्रुटि है ?
आख़री पंक्ति:-
'मंज़िल उनको ही मिलती है,जिनकी लगन फितूरी है''
इस पंक्ति में 'फितूरी'ग़लत है,सही शब्द है"फ़ुतूर"इससे बना "फ़ुतूरी"इसका अर्थ है'ख़राबी, फ़साद'
आप ही सोचिये जिसकी लगन में ख़राबी और फ़साद होगा उसे मंज़िल कैसे मिलेगी ? यहाँ कोई दूसरा शब्द रखिये ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 2, 2017 at 8:56am
बड़ी ही सुन्दर रचना हुई आदरणीया..सादर

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