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'महब्बत कर किसी के संग हो जा'

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन फ़ऊलुन

हिमाक़त छोड़ दे फ़रहंग हो जा
महब्बत कर किसी के संग हो जा

ग़ज़ल मेरी सुना लहजे में अपने
मैं गूँगा हूँ मेरा आहंग हो जा

यहाँ घुट घुट के मरने से है बहतर
निकल मैदाँ में मह्व-ए-जंग हो जा

करे अपना के दुनिया फ़ख़्र जिस पर
वफ़ा का वो निराला ढंग हो जा

चढ़े इक बार जिस पर फिर न उतरे
महब्बत का तू ऐसा रंग हो जा

ये दुनिया सीधे साधों की नहीं है
उदासी छोड़ शौख़्-ओ-शंग हो जा

जुदा ता उम्र कोई कर न पाए
"समर"के जिस्म का वो अंग हो जा
-----/
फ़रहंग-दानाई- बुद्धिमानी(उर्दू की एक लुग़ात का नाम )
आहंग-आवाज़
मह्व-ए-जंग-युद्ध में डूबना(लेकिन ये युद्ध तलवार वाला नहीं )
फ़ख़्र-गर्व
शौख़-ओ-शंग-चंचल,चालाक
समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 24, 2017 at 9:01pm

वाह वाह लाजबाब 

Comment by Sushil Sarna on July 24, 2017 at 3:30pm

चढ़े इक बार जिस पर फिर न उतरे
महब्बत का तू ऐसा रंग हो जा

वाह आदरणीय समर कबीर साहिब बहुत ही दिलकश ग़ज़ल है। हार्दिक बधाई सर। सर ये महब्बत कहीं मोहब्बत तो नहीं ?

Comment by Gurpreet Singh jammu on July 24, 2017 at 3:03pm

आदरणीय समर सर जी,,, एक और उम्दा ग़ज़ल के लिए आपको ढेरों ढेर बधाई 

Comment by Ravi Shukla on July 24, 2017 at 12:51pm

आदरणीय समर साहब बहुत ही खूबसूरती से आपने अपनी बात गजल के अश्‍ाआर में कही है हर शेर नायाब है सामान्‍य से लगने वाले कवाफी के निहायत ही उम्‍दा इसतेमाल ने उन्‍हे खास बना दिया कुछ नये अल्‍फाज भी जानने को मिले । इस गजल के लिये शेर दर शेर मुबारक बाद कुबूल करें । सादर

Comment by Mohammed Arif on July 24, 2017 at 12:03pm
हिमाक़त छोड़ दे फ़रहंग हो जा
महब्बत कर किसी के संग हो जा । वाह!वाह!! कमाल का मतला कहा है आपने ।
हर शे'र बेजोड़-बेमिसाल है । फिर एक और धमाकेदार ग़ज़ल का आगाज़ । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब ।

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