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उसने मिलते ही कहा..
उस उम्र से ये उम्र की उम्र हो गई
जाने कहाँ कब कैसे वो उम्र खो गई
मीठे लम्हों से जो निखरी थी
खट्टे लफ्ज़ो से जो बिख़री थी
जहाँ मैं तुं नहीं सिर्फ हम थे
वहाँ हम नहीं सँभल पायें 
चलो फिर कही ढुंढते है
जिस उम्र की उम्र हो गई
तुम अपने जिस्म को तराशो
मै अपने बदन को खरोच कर देख लुं.
शायद कोई दम घुंट कर मरा पडा सदमा मिल आये..
शायद कोई सदमा हमें देख कर जीने को तिलमिलाये
चलो यहीं से उस उम्र के वापसी की निंव डाले.
चलो यहीं से इस उम्र के आश की डोर सँभाले.

~संजय गुंदलावकर 

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 10, 2017 at 7:40am

आदरनीय संजय भाई , कविता के लिये बधाई .. हाँ ये बात ज़रूर है भाव संप्रेषित सही हो पाये हैं !

Comment by नाथ सोनांचली on July 9, 2017 at 7:43pm
आद0 संजय जी सादर अभिवादन। कविता सृजन का अच्छा प्रयास। बधाई।
Comment by Samar kabeer on July 8, 2017 at 7:14pm
जनाब संजय गुंदलावकर जी आदाब,कविता का प्रयास अच्छा है लेकिन कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया कि आप क्या कहना चाहते हैं'उस उम्र से ये उम्र की उम्र हो गई'क्या बात हुई ?
बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें,और अच्छा लिखने का प्रयास करते रहें ।
Comment by PARDEEP KUMAR on July 7, 2017 at 11:38pm
पढ़कर अच्छा लगा । बहुत अच्छा लिखा है आपने। बधाई स्वीकार करें । धन्यवाद।।
Comment by Mohammed Arif on July 7, 2017 at 5:46pm
आदरणीय संजय जी आदाब ,अच्छा प्रयास लेकिन वर्तनीगत काफी अशुद्धियाँ हैं । बधाई स्वीकार करें ।

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