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ग़ज़ल-नूर की- ऐसा लगता है फ़क़त ख़ार सँभाले हुए हैं,

2122/1122/1122/22
.

ऐसा लगता है फ़क़त ख़ार सँभाले हुए हैं,
शाख़ें, पतझड़ में भी क़िरदार सँभाले हुए हैं.
.
जिस्म क्या है मेरे बचपन की कोई गुल्लक है  
ज़ह’न-ओ-दिल आज भी कलदार सँभाले हुए हैं.   
.
आँधियाँ ऐसी कि सर ही न रहे शानों पर,
और हम ऐसे में दस्तार सँभाले हुए हैं.
.
वक़्त वो और था; तब जान से प्यारे थे ख़ुतूत
अब ये लगता है कि बेकार सँभाले हुए हैं.
.
टूटी कश्ती का सफ़र बीच में कुछ छोड़ गए,  
और कुछ आज भी पतवार सँभाले हुए हैं.
.
मुझ को मिल जाये अगर तू, मैं लिपट कर रो लूँ,
आँखें अब तक तेरा इन्कार सँभाले हुए हैं.
.
तेरी दुनिया के टिके रहने में तेरा क्या हाथ?
इस को तो “नूर” से ख़ुद्दार सँभाले हुए हैं.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2017 at 8:54pm

शुक्रिया आ. शिज्जू भाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2017 at 8:54pm

शुक्रिया आ. अनुराग जी 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 25, 2017 at 8:51pm
आदरणीय नूर जी आपकी ग़ज़ल के नूर से ये मंच रोशन है अभिव्यक्ति की गहराई सहेजे शानदार ग़ज़ल ।।उर्दू के दो तीन शब्द जो आपने लिखें हैं उनका अर्थ भी देने का कष्ट करें सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 25, 2017 at 6:21pm

बेहतरीन आ. निलेश भाई हमेशा की तरह लाजवाब ग़ज़ल है, शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएँ

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2017 at 6:00pm

शुक्रिया आ. समर कबीर सर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2017 at 6:00pm

शुक्रिया आ. सुशिल सरना जी 

Comment by Samar kabeer on April 25, 2017 at 5:47pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Sushil Sarna on April 25, 2017 at 5:38pm

मुझ को मिल जाये अगर तू, मैं लिपट कर रो लूँ,
आँखें अब तक तेरा इन्कार सँभाले हुए हैं.

वाह आदरणीय नीलेश जी बहुत खूब। ... आपने इस ग़ज़ल में बन्दे का दिल जीत लिया ... शे'र दर शे'र के लिए मुबारकबाद कबूल फरमाएं।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2017 at 9:58am

शुक्रिया आ. दिनेश कुमार जी ..
आभार 

Comment by दिनेश कुमार on April 25, 2017 at 8:00am
वाह वाह वाह आदरणीय निलेश भाई जी। हर शेर पर दिल से वाह निकली। वह ।

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