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ग़ज़ल-नूर की - जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,

२१२२/२१२२/२१२ 
.
जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,
ये न हो चादर उसे मैली मिले.
.
इस सफ़र में रात जब गहरी मिले
शम’अ कोई या ख़ुदा जलती मिले.
.
याद रखने के लिये दुनिया रही
भूल जाने के लिये हम ही मिले. 
.
ये बग़ावत है तो हम बाग़ी सही,
सच कहेंगे, फिर सज़ा इस की मिले.

.
हाँ! शुरू में रोज़ मिलते थे.. मगर
बाद में कुछ यूँ हुआ कम ही मिले.
.
सर कलम करने पे आमादा है वो
चाहते हम भी हैं अब छुट्टी मिले.
.
डाल देना बीज कुछ फूलों के तुम
जब भी मिट्टी में मेरी मिट्टी मिले.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 1, 2017 at 9:04am

शुक्रिया आ. गुरप्रीत जी 

Comment by Samar kabeer on March 31, 2017 at 9:36pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,क्या ही शानदार और मुरस्सा ग़ज़ल कही है आपने,मज़ा आ गया,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Gurpreet Singh jammu on March 31, 2017 at 6:55pm
आदरणीय नीलेश जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल है..सभी शेअर लाजवाब हैं...


हाँ! शुरू में रोज़ मिलते थे.. मगर
बाद में कुछ यूँ हुआ कम ही मिले.

वाह वाह क्या बात है
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 31, 2017 at 4:50pm

शुक्रिया आ. सीमा जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 31, 2017 at 4:50pm

शुक्रिया आ. रवि जी 

Comment by Ravi Shukla on March 31, 2017 at 10:54am

आदरणीय नीलेश जी बहुत ही शानदार गजल कही आपने बहुत बहुत बधाई

कृपया ध्यान दे...

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