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ग़ज़ल -यतीम घर से कोई माँ कई दफ़ा पहुँची

1212 1122 1212 22
ये जिंदगी है अभी तक नहीं दुआ पहुँची ।
खुदा के पास तलक भी न इल्तजा पहुँची।।

गमो का बोझ उठाती चली गई हँसकर ।
तेरे दयार में कैसी बुरी हवा पहुँची ।।

अजीब दौर है रोटी की दास्ताँ लेकर ।
यतीम घर से कोई माँ कई दफ़ा पहुची ।।

तरक्कियों की इबारत है सिर्फ पन्नों तक ।
है गांव अब भी वही गाँव कब शमा पहुँची ।।

यहां है जुल्म गरीबी में टूटना यारो ।
मुसीबतों में जफ़ा भी कई गुना पहुँची।।

है फरेबों का चमन मत गुहार कर बन्दे ।
के रिश्वतों के बिना कब कोई सदा पहुँची ।।

वो बिक गई थी सरेआम रात महफ़िल में ।
सुना है घर पे कई बार दिल रुबा पहुँची ।।

ये भूंख रोज जलाती है ख्वाहिशें देखो ।
जम्हूरियत है ये साहब नहीं हया पहुंची ।।

बड़ा बेदर्द जमाना है उस को क्या देगा ।
हुई तमाम वफायें मगर ख़ता पहुँची ।।

ठगा गया है ये इंसान फिर सियासत से ।
नई हयात के बदले नई क़ज़ा पहुंची ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 16, 2017 at 11:10pm

भाई नवीन मणि जी, आपकी ग़ज़ल से गुजरा. मतला ही खटक गया. आगे कई शेर हैं जिन पर ढेर सारी बातें की जा सकती हैं. लेकिन, भाई, आप लोगों से इस विधा की बारीकी पर बात करने में असहज महसूस करता हूँ. आप अन्यथा न लेंगे. लेकिन बातें असहज नहीं हैं. कई विसंगतियाँ हैं इस ग़ज़ल में. ेबस इतना समझ लें, ग़ज़ल दो पंक्तियों में कुछ भी कह दी गयी इबारत नहीं होती. न रदीफ़-काफ़िया का इम्तिहान हुआ करती हैं अन्यथा न लें तो, कृपया अभ्यासरत रहें. 

शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 16, 2017 at 5:08pm

आदरनीय नवीन भाई , ग़ज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ । बाक़ी सब कुछ आदरणीय समर भाई कह ही चुके हैं , उनकी बातों का ख्याल कीजियेगा ।

Comment by Ravi Shukla on February 15, 2017 at 2:11pm

आदरणीय नवीन मणि जी गजल के प्रयास के लिये बधाई आदरणीय समर साहब के कहने के बाद कुछ नहीं रह जाता आपकी गजल के हवाले से समर साहब की बेशकीमती राय से हम भी वााकिफ हए आपका और समर साहब का पुन: धन्‍यवाद

Comment by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on February 14, 2017 at 4:29pm

आदरणीय त्रिपाठी जी .. बहुत बढ़िया प्रयोग के लिए हार्दिक बधाई....

Comment by Samar kabeer on February 13, 2017 at 9:34pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,आप ग़ज़ल पर मुसलसल अभ्यासरत हैं,ये ख़ुशी की बात है,लेकिन आपके अभ्यास को सही दिशा की ज़रूरत है,पिछले दिनों मैंने इस सम्बन्ध में आपकी या 'ब्रज'साहिब की किसी ग़ज़ल पर ये लिखा था कि नए ग़ज़लकारों को चाहिये कि अपनी बनाई हुई ज़मीनों के बजाय उस्ताद शायरों की कही गई ग़ज़लों से मिसरे लेकर अभ्यास करेंगे तो आगे का सफर आसान हो जायेगा,इसके साथ अध्यन की भी ज़रूरत है ।
आपकी इस ग़ज़ल में कई बिंदुओं पर बात की जा सकती है,एक तो ये रदीफ़ के साथ इंसाफ नहीं हो पाया है,व्याकरण की गलतियां भी हैं,मन्तिक़(तार्किकता)के दोष भी हैं,मिसाल के तौर पर आपका मतला,मतला नहीं सिर्फ़ दो मिसरे हैं जो बह्र में हैं,उनमें मतले वाला रब्त नहीं है :-
'ये ज़िन्दगी है अभी तक नहीं दुआ पहुंची
ख़ुदा के पास तलक भी न इल्तिजा पहुंची'
इस मतले में आप क्या कहना चाहते हैं ?समझ नहीं पा रहा हूँ,और भाई ख़ुदा के पास क्यों इल्तिजा नहीं पहुंची ?किसने रोक दिया ?
इसी तरह के और अशआर भी हैं,छटे और नवें शैर के ऊला मिसरे लय में नहीं हैं ,कुल मिलाकर ग़ज़ल और समय चाहती है ।
मुझे याद नहीं आरहा है कि आप कभी ओबीओ के तरही मुशायरे में नज़र आये हों,उसमें हिस्सा ज़रूर लीजिये,वो नये सीखने वालों के अभ्यास के लिये ही होता है,उम्मीद है मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on February 13, 2017 at 7:10pm
आ0 आरिफ साहब आभार
Comment by Mohammed Arif on February 13, 2017 at 6:14pm
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, अच्छी ग़जल कही है आपने। बधाई स्वीकार करें। कुछ वर्तनीगत अशुद्धियाँ है ।

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