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कोई प्रेम-कथा उतरी है (ग़ज़ल) - मिथिलेश वामनकर

2122 – 1122 – 1122  - 22

 

केश विन्यास की मुखड़े पे घटा उतरी है  

या कि आकाश से व्याकुल सी निशा उतरी है

 

इस तरह आज वो आई मेरे आलिंगन में

जैसे सपनों से कोई प्रेम-कथा उतरी है

 

ऐसे उतरो मेरे कोमल से हृदय में प्रियतम

जैसे कविता की सुहानी सी कला उतरी है

 

मेरे विश्वास के हर घाव की संबल जैसे   

तेरे नयनों से जो पीड़ा की दवा उतरी है

 

पीर ने बुद्धि को कुंदन-सा तपाया होगा

तब कहीं जाके हृदय में भी दया उतरी है

 

पाप से आप जो दिन रात नहाये होंगे

इसलिए विष से भरी प्रेम-सुधा उतरी है

        

आज फिर से किसी शासक ने ठहाका मारा

आज फिर से किसी निर्धन की त्वचा उतरी है

 

आजकल पक्ष व प्रतिपक्ष में हैं घर आँगन

घर में दिल्ली की ही विषयुक्त हवा उतरी है

 

घर प्रकाशित करो दीपक से, ये आशा छोड़ो

चाँदनी यूं कभी अम्बर से भला उतरी है

 

फिर कहीं पर कई शम्बूक के वध निश्चित हैं 

फिर कहीं अग्नि में ‘मिथिलेश’  सुता उतरी है

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by indravidyavachaspatitiwari on February 4, 2017 at 8:23am

 पीड़ा को झेलने के लिए जो सब्र चाहिए उसे आप कला के माध्यम से प्राप्त करना चाहते हैं। आपके प्रयास से फिर एक बार मिथलेश सुता और शम्बुक की याद के बहाने परीक्षा को याद किया। इसके लिए तथा अच्छी गजल रचना के लिए आपको कोटिशः धन्यवाद।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 18, 2017 at 5:47pm

आदरणीय नरेंद्र सिंह चौहान जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर.

Comment by narendrasinh chauhan on January 18, 2017 at 5:33pm

खूब सुन्दर ग़ज़ल हुई ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 10, 2017 at 12:43am

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र सिंह जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 9, 2017 at 7:18pm

बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय मिथिलेश जी। दिली दाद कुबुल कीजिए


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 9, 2017 at 6:16pm

आदरणीया राजेश दीदी, आपको ग़ज़ल पसंद आई, जानकार आश्वस्त हुआ. आपकी प्रशंसा पाकर मुग्ध हूँ. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर नमन 


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Comment by rajesh kumari on January 9, 2017 at 3:20pm

वाह्ह्ह वाह्ह्ह्ह मिथिलेश भैय्या बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही है दिल से ढेरों बधाई लीजिये 

पीर ने बुद्धि को कुंदन-सा तपाया होगा

तब कहीं जाके हृदय में भी दया उतरी है-----कमाल का शेर 

आज फिर से किसी शासक ने ठहाका मारा

आज फिर से किसी निर्धन की त्वचा उतरी है---लाजबाब 

 

 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2017 at 10:51pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 7, 2017 at 9:19pm
आजकल पक्ष व प्रतिपक्ष में हैं घर आँगन
घर में दिल्ली की ही विषयुक्त हवा उतरी है
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति , बधाई , प्रिय मिथिलेश वामनकर जी , सादर।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2017 at 2:33pm

आदरणीय विजय निकोर सर, आपकी मुक्तकंठ प्रशंसा पाकर अभिभूत हूँ. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर

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