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ग़ज़ल: जुबाँ से वक्त भी मुकरा हुआ है

1222 1222 122
बहुत खामोश सा चेहरा हुआ है ।
वो अपने दर्द में उलझा हुआ है ।।

दिखा है आँख में हिलता समंदर ।
किसी के इश्क़ पर पहरा हुआ है ।।

जो सुनता है तुम्हारी धड़कनो को ।
कहा किसने ख़ुदा बहरा हुआ है ।।

मिली जब से नज़र बेहोश है वो ।
यकीनन जख़्म कुछ गहरा हुआ है ।।

तुम्हारे जश्न की चर्चा हुई क्यों।
सुना कुछ रात का सौदा हुआ है ।।

बड़ा अदना समझ रक्खा है मुझको।
तमाशा क्यूँ मेरे घर का हुआ है ।।

हुआ बदनाम तेरी बेरुखी से ।
गली में नाम फिर लिक्खा हुआ है ।।


मुहब्बत में फ़िदा है जाने किसकी ।
बड़ी मुद्दत से वो ठहरा हुआ है ।।

रियासत बिक गई उसकी भी यारों ।
तुम्हारे दर से जो गुजरा हुआ है ।।

भरोसे की न तुम पूछो कहानी ।
जुबां से वक्त भी मुकरा हुआ है ।।

- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by नाथ सोनांचली on December 20, 2016 at 2:55pm
आद0 नवीन जी सादर अभिवादन, उम्दा गजल के लिए बधाई
Comment by Naveen Mani Tripathi on December 19, 2016 at 11:17pm
आ0 महेंद्र कुमार जी सादर आभार
Comment by Mahendra Kumar on December 18, 2016 at 10:48am
आदरणीय नवीन जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। आपको बहुत-बहुत बधाई। सादर।
Comment by Naveen Mani Tripathi on December 16, 2016 at 5:01pm
आ0 गुरु जी कबीर सर तहे दिल से शुक्रिया ।
Comment by Samar kabeer on December 16, 2016 at 4:00pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
तीसरा शैर:-
',जो गिनता है तुम्हारी धड़कनों को
कहा किसने ख़ुदा बहरा हुआ है'
सानी मिसरे में 'बहरा'शब्द आया है इस मुनासिबत से ऊला मिसरा यूँ होना चाहिये:-
"जो सुनता है तुम्हारी धड़कनों को'
सातवें शैर में क़ाफ़िया दोष है,सही शब्द है "चस्पां"
आठवें शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ेन का दोष है,ऊला मिसरा यूँ कर लें तो ये दोष निकल जायेगा:-
"मुहब्बत में फ़िदा है जाने किस की"
आख़री शैर में ऐब-ए-तनाफ़ुर है 'वक़्त तक',सानी मिसरा यूँ कर लें तो ये दोष निकल जायेगा:-
ज़ुबाँ से वक़्त भी मुकरा हुआ है"
बाक़ी शुभ शुभ

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