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हो गया हूँ बुरा

करता रहा समझौता
सहता रहा चुपचाप सब
जब तक मैं
तब तक
अच्छा था सबकी
नज़रों में बहुत
हाँ, तुम्हारी भी तो
पर आज जब मैंने सच बोला
बोल दिया झूठ को झूठ
तो हो गया हूँ बुरा
सबसे बुरा
गिर गया हूँ गहरे
कहीं बहुत गहरे
सबकी नज़रों से
और हाँ, तुम्हारी भी तो!

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Mahendra Kumar on December 5, 2016 at 6:39pm
हौसलाफ़ज़ाई का बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय डॉ. गोपाल नारायन जी। सादर।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 5, 2016 at 1:29pm

हाँ तुम्हारी भी तो ----------------------- अच्छा प्रयास है . 

Comment by Mahendra Kumar on December 3, 2016 at 5:38pm
आपका हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज सर, सादर!

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Comment by गिरिराज भंडारी on December 3, 2016 at 10:04am

आदरणीय महेन्द्र भाई , यही व्यवहारिक सच्चाई है सदा से , अच्छी कविता के लिये आपको बधाई

Comment by Mahendra Kumar on December 3, 2016 at 9:31am
रचना को पसन्द करने की लिए आपका हृदय से आभार आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी। सादर!
Comment by Mahendra Kumar on December 3, 2016 at 9:30am
बहुत-बहुत आभार आपका आदरणीय राम आश्रय जी।
Comment by नाथ सोनांचली on December 3, 2016 at 3:44am
आदरणीय महेन्द्र कुमार जी सादर अभिवादन। बहुत ही उत्तम रचना, झूठ का है बोलबाला, सच का मुंह कला, आज की यही सच्चाई है। हार्दिक बधाई आपको
Comment by Ram Ashery on December 2, 2016 at 8:39pm

बधाई हो अपने बिलकुल ठीक ही लिखा है जब तक आप झूठ का साथ देते हो और उनकी सब सह रहे  तो आप सही वरना आप तो महा गद्दार निकक्मा और पता नहीं क्या हो । 

Comment by Mahendra Kumar on December 2, 2016 at 9:06am
सादर आदाब, आदरणीय समर कबीर सर। कविता आपको पसन्द आयी, लिखना सार्थक रहा। आपका बहुत-बहुत आभार।
Comment by Samar kabeer on December 1, 2016 at 5:22pm
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,बहुत बढ़िया कविता लिखी आपने,सच को सच कहना इस युग में सबसे बड़ा अपराध है ।
इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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