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ग़ज़ल नूर की ..

ग़ज़ल 
मात्रिक (22)

संघर्षों के जीवन रण में अपना हिस्सा हार गया,
मान के मिथ्या इस आँगन को, कोई इस के पार गया. 
.
विद्वत्ता से श्रेष्ठ कहाई सत्कर्मों की पुण्याई,
अहँकार के फेर में रावण! तेरा जीवन सार गया. 
.
प्रश्न हमारे सच्चे थे पर उत्तर झूठे थे उनके,
जब से सच का बोध हुआ है, धर्मों का आधार गया. 
.
ईश्वर पूजा, अल्लाह पूजा, ख़ुद के तन को कष्ट दिए,
उस जीवन की आस में मानव, ये जीवन बेकार गया. 
.
ईश्वर तेरे साथ चलेगा बस साँसों के स्पंदन तक,
जिस पल “नूर” तू बुझ जाएगा, समझ तेरा संसार गया. 

निलेश "नूर"

मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 23, 2016 at 8:11am

शुक्रिया आ. ब्रिजेश जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 22, 2016 at 10:49am

वाह आदरणीय निलेश भाई बेहतरीन ग़ज़ल हुई लाजवाब वाह बहुत-बहुत बधाई आपको

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 22, 2016 at 10:30am
अतिउत्तम सुन्दर सृजन

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