दो दिन से भूखा-प्यासा कबीर धूल भरी पगडंडियों में भटक रहा है।अज़ब है उसकी जिंदगी भी,दुनिया वालों के लिए अनाथ और पागल, न उसकी कोई जाति न कोई धर्म,जाने किसने,कब ,कहाँ,उसका नाम कबीर रख दिया। लोगों के रहमों करम से मिल गया तो खा लिया, हिन्दू के घर से रोटी ली तो मुसलमान के घर से सब्जी, स्वाद में कोई फ़र्क नहीं। गाँव दर गाँव नापता।
इधर सरहद पर तनातनी के बाद मरघट सी ख़ामोशी हवाओं में सरसरा रही है।मीलों आदमजात की आमद दरफ्त नहीं हैं।बेज़ार भटकता कबीर उस गाँव में पहुँचा तो लगा मकानों के क़ब्रिस्तान में पहुंच गया हो।सब पर ताले जड़े हुए थे।
केवल मन्दिर मस्ज़िद और गुरुद्वारा खुले और विरान पड़े थे। ये देख हंसी का दौरा उसके ऊपर तारी हो गया।और आसमान को देख ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा -
" आज़मा ली इंसानी फ़ितरत ?
इन विरान मन्दिर मस्ज़िदों को देखकर मेरा दिल खुश हो गया, ...या ख़ुदा आज मेरी तरह तेरा भी खाना ख़राब हो गया।"
जानकी बिष्ट वाही
मौलिक एवम् अप्रकाशित
नॉएडा उत्तर प्रदेश
Comment
वाह्ह बहुत अच्छी लघु कथा अच्छा सन्देश देती हुई बधाई आपको जानकी वाही जी |
बढ़िया सन्देश देती हुई आपकी इस लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया जानकी जी |
वाह आ. जानकी वाही जी ये लघुकथा आखिर में सटीक संदेश छोड़ गई; बधाई आपको इस रचना के लिए
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