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पुरानी किताबें ....

पुरानी किताबें ........

पुरानी किताबें
कुछ भी तो नहीं
सिवाय पुरानी कब्रों के
जिनमें दफ़्न हैं
चंद सूखे गुलाब
कुछ सिसकते हुए
मुहब्बत के ख़ुश्क से हर्फ़
कुछ पुराने पीले
टुकड़े टुकड़े से
अधूरे प्रेम के
प्रेम पत्र

पुरानी किताबें
जिनमें सो गयी
जीने की आस लिए
कई आकांक्षाएं
घुटी हुई सांसें
मोटी सी ज़िल्द की
अलमारी में
कैदियों से जीते
मौन कई अफ़साने
जंज़ीरों में जकड़े
इश्क और मुहब्बत के
बीते हुए  ज़माने


पुरानी किताबें
कैद हैं जिनमें
चेहरे की झुर्रियों में
जीवन समेटे
बज़ुर्गों के
कुछ धुंधले से चेहरे
जिनकी नसीहतें
उनके साथ
पन्नों में
सो गयी

पुरानी किताबें
फ्रेम में जड़े
ज़िस्मों की तरह
खामोश यादों के सिवा
शायद
कुछ भी नहीं
पन्नों में सिमटे
बीते पल
बस
बीते कल के सिवा
कुछ भी नहीं

पुरानी ही सही
मगर कैसे कह दें
इन किताबों में
कुछ भी नहीं

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on October 6, 2016 at 3:12pm

आदरणीया कल्पना भट्ट जी प्रस्तुति के भावों को अपने जिस आत्मीयता से अलंकृत किया है उसके लिए आपका हार्दिक हार्दिक आभार। 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 5, 2016 at 9:27pm

पुरानी किताबें
फ्रेम में जड़े
ज़िस्मों की तरह
खामोश यादों के सिवा
शायद
कुछ भी नहीं
पन्नों में सिमटे
बीते पल
बस
बीते कल के सिवा
कुछ भी नहीं

पुरानी ही सही
मगर कैसे कह दें
इन किताबों में
कुछ भी नहीं|

बहुत ही लाजवाब रचना हुई है आदरणीय सुशिल सर जी | हार्दिक बधाई | आपकी हर कविता एक अलग अंदाज़ की होती है | नमन आपको |

Comment by Sushil Sarna on October 2, 2016 at 1:36pm

आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब आप जैसे गुणीजनों से प्रशंसा पाकर रचना गर्व महसूस कर रही है।  आपका तहे दिल से शुक्रिया। 

Comment by Sushil Sarna on October 2, 2016 at 1:34pm

आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी प्रस्तुति को अपने स्नेहिल और आत्मीय शब्दों से अलंकृत कर मान बढाने का तहे दिल से शुक्रिया। आदरणीय बिलकुल सही सर मैं जल्दी में बार बार हुई को हुए पढता जा रहा था और आदरणीय समर कबीर साहिब ने उसे बीती हुई जमाने कह कर इंगित किया और मैंने जब उसे पुनः पढा तो उसमें बीते लिखा हुआ था   .... मैंने हुई को नहीं पढ़ा इसलिए मैंने कहा कि वो पंक्ति ठीक है। ... खैर इस टंकण त्रुटि को अभी एडिट कर रचना को दुरुस्त कर देता हूँ। आपका और समर कबीर साहिब का मैं दिल से आभारी हूँ। 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 2, 2016 at 11:54am

पुरानी ही सही
मगर कैसे कह दें
इन किताबों में
कुछ भी नहीं-----------------वाह वाह सरना जी . अच्छा रूपक बांधा है . सादर .

Comment by Ashok Kumar Raktale on October 2, 2016 at 10:59am

आदरणीय सुशील सरना साहब सादर नमस्कार, पुरानी किताबों को आधार बनाकर सुंदर रचना की है आपने. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. कैदियों से जीते .....यह पंक्ति तो सही लग रही है. किन्तु 'बीते हुई जमाने' पर आदरणीय समर कबीर साहब का सुझाव सही है. सादर.

Comment by Sushil Sarna on October 1, 2016 at 7:29pm

आदरणीय समर कबीर साहिब मेरी हर प्रस्तुति आपकी आहटों का इंतज़ार करती है। प्रस्तुति के भावों पर आपकी गहन दृष्टि अपनी छैनी से और भी उन्नत कर देती है। आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। आपके द्वारा इंगित पंक्तियों में सुधार के बारे में
अलमारी में
कैदियों से जीते (इसमें जीते से अभिप्राय जीना है ) इसलिए इसमें परिवर्तन की आवश्यकता नहीं लगती।
मौन कई अफ़साने
और
''बीते हुई ज़माने'' ये पंक्ति तो सही है।

आपकी पैनी समीक्षा एवम सुझाव का तहे दिल से शुक्रिया।

Comment by Samar kabeer on October 1, 2016 at 6:09pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,आपकी कविता के विषय चोंकाने वाले होते है,पुरानी किताबों को बिम्ब बनाकर बहुत कुछ कह दिया आपने,वाह वाह बहुत खूब,इस बहतरीन प्रस्तुति पर दिल की गहराइयों से बधाई स्वीकार करें ।
20वीं पंक्ति में 'कैदियों से जीते'को क्या"कैदियों सी जीतीं" होना मुनासिब होगा ?
इसी तरह 24वीं पंक्ति में'बीती हुई ज़माने'को"बीते हुए ज़माने" करना उचित होगा क्या ?
Comment by Sushil Sarna on October 1, 2016 at 4:10pm

आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' jee   ... प्रस्तुति के भावों को  पने मनोहारी शब्दों से अलंकृत करने का तहे दिल से शुक्रिया। 

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 1, 2016 at 3:09pm
आदरणीय सुशील सरना जी बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ।

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