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ग़ज़ल

1222  1222  1222  1222

 

अगर तुम पूछते दिल से शिकायत और हो जाती I

सदा दी होती जो  तुमने  शरारत ओर हो जाती II

 

पहन कर के नकावें जिन पे बरसाते कोई पत्थर ,

वयां तुम करते दुख उनका हिमायत और हो जाती I

 

कहो जालिम जमाने क्यों मुहव्वत करने वालों पर?

अकेले सुवकने से ही कयामत और हो जाती I

 

बड़ा रहमो करम वाला है मुर्शिद जो मेरा यारो ,

पुकारा दिल से होता गर सदाकत और हो जाती I

 

मुझे तो होश में लाकर भी क्यों ना मुस्कराए तुम?

जहां सब कुछ हुआ इतनी इनायत और हो जाती I

 

दिया होता जो चलना बेटियों को अपने पांवों पर,

न होता वितकरा उनसे रिवायत और हो जाती I

 

रखा था क्यों छुपा कर प्यार उनसे दिल में यूं 'कंवर'?

अगर इजहार करते तो नफ़ासत और हो जाती I

 

 

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by कंवर करतार on September 26, 2016 at 3:29pm

कवीर भाई ,ग़ज़ल पर आपकी निगाह पड़ी,धन्यावादI आपके सुझाव सर माथे Iसुधारने के  प्रयास में हूँ I

Comment by Samar kabeer on September 25, 2016 at 11:07pm
जनाब कंवर करतार जी आदाब,पहली बार आपकी ग़ज़ल से रूबरू हुवा हूँ,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है लेकिन ग़ज़ल कुछ और समय चाहती है ,कुछ मिसरों में लय बाधित हो रही है ,उन्हें देखियेगा,बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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