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एक तरही ग़ज़ल // --सौरभ

२२१ २१२१ १२२१ २१२


पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?
मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ? 
 
होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ? 
 
हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख..
किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ? 
 
सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा
कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !
 
जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?
सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ? 
 
क़ातिल तरेर आँख.. जताता है दोस्ती..
ऐसे में कौन कण्ठ ही होगा मुखर कहाँ ? 
 
अहसास ही सवाल थे अहसास ही ज़वाब
’रक्खी है आज लज्जत-ए-दर्द-ए-जिगर कहाँ !’
********
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 17, 2016 at 9:03am
इस ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीय ।
Comment by Samar kabeer on August 16, 2016 at 11:54pm
जनाब सौरभ पांडे जी आदाब,बहुत ही उम्दा और मुरस्सा ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को ।

पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?
मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ?

;- कामयाब मतला है लेकिन अगर इसे उर्दू लिपि में लिखेंगे तो ईताए जली का दोष पाया जायेगा ।

होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ?

:-ज़ईफ़ी और लाचारी का भरपूर बयान है,वाह ।

हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख..
किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ?

:-शैर ख़ूब है ,लेकिन सानी मिसरे का बयान रदीफ़ से मेल नहीं खा रहा है ,रदीफ़ सवालिया है और सानी मिसरे का यह टुकड़ा 'किस कोठरी में दफ़्न है' ये भी सवालिया है ,एक ही मिसरे में दो सवाल हो गये ? अगर 'किस' को 'इस' करदें तो शैर का मफ़ूम पूरी तरह साफ़ हो जायेगा ,ये सिर्फ़ मेरी नाचीज़ राय है ।

सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा
कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !

:-अच्छा शैर है ।

जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?
सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ?

:- इस शैर के ऊला मिसरे में मफ़ूम उलझ रहा है,'कहाँ द्रोपदी कहीं',यहाँ भी इस मिसरे में 'कहाँ' शब्द भर्ती का है ,देखियेग ।

क़ातिल तरेर आँख.. जताता है दोस्ती..
ऐसे में कौन कण्ठ ही होगा मुखर कहाँ ?

:- बहुत उम्दा शैर हैं,'आँखें तरेरना' मुहावरे का बहुत ख़ूबसूरत इस्तेमाल हुवा है,बहुत ख़ूब,वाह ।

अहसास ही सवाल थे अहसास ही ज़वाब
’रक्खी है आज लज्जत-ए-दर्द-ए-जिगर कहाँ'

:- उम्दा गिरह लगाई है ।

इस उम्दा ग़ज़ल के लिये दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ,इस तरह में मैंने भी दो ग़ज़लें कहीं थीं जो मेरे दूसरे ग़ज़ल संग्रह 'गुल' पृष्ठ क्रमांक 62-63 पर पढ़ सकते हैं,पहली ग़ज़ल का मक़्ता यहाँ साझा करता हूँ :-

"जब शाख़ें सूख जाऐंगीं बूढ़ें दरख़्त की
ढूँडोगे तुम "समर" को ,मिलेगा "समर" कहाँ"
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2016 at 10:16pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय सौरभ जी, दाद कुबूल कीजिए

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 16, 2016 at 9:10pm
सादर नमन श्रद्धेय!उम्दा भाव,उम्दा ग़ज़ल!
Comment by Sushil Sarna on August 16, 2016 at 7:23pm

पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?
मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ?

होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ?

शानदार आदरणीय सौरभ सर शानदार .... खूबसूरत अहसासों से लबरेज़ ऐसे अशआर ग़ज़ल को एक नयी बुलंदी बख्शते हैं ... लगता है जैसे कोई बादे नसीम ज़िस्म को एक सिहरन दे गयी हो ... बहरहाल अहसासों को जुबां देती इस बेहतरीन ग़ज़ल की प्रस्तुति पर आपको हार्दिक हार्दिक बधाई।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 16, 2016 at 5:56pm
// हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख..
किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ? //...आह और वाह...बहुत ही विचारोत्तेजक गंभीर अशआर के साथ परिदृश्य को शाब्दिक करती हुई बेहतरीन ग़ज़ल के लिए तहे दिल से बहुत बहुत बधाई और आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी।
Comment by Shyam Narain Verma on August 16, 2016 at 4:47pm
हार्दिक बधाइ स्वीकार करें इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए । सादर ।

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