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आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जाने

2122    2122    2122    2122

शोध पेपर इक कहानी ऐसी बनते जा रहे हैं

जिसमे नित नव कल्पना के पंख लगते जा रहे है

सारी दुनिया के रसायन आज  हैराँ सोचकर ये

हम जहाँ जुड़ ही  नहीं सकते थे जुड़ते जा रहे हैं

आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जाने

शोध', चूहे -खरहों के पर प्राण हरते जा रहे हैं

मोतियों से दांत दिखला पेस्ट जो करते प्रचारित

नीम की दातून से निज दांत घिसते जा रहे हैं

रोज अखबारों को पढ़कर दे रहे हैं मशविरा सब

अब चिकित्सक मुल्क के हर घर में बनते जा रहे है

क्यूँ न दीवाली मनेगी नित दवा की कंपनी में

जब दवाओंसे ही ही सबके पेट भरते जा रहे हैं

जंगलो को पार जिसने था किया बेख़ौफ़ होकर

उसके बच्चे पाठशाला डरते डरते जा रहे है       F64

मौलिक व अप्रकाशित                         

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 15, 2016 at 4:32pm
बहुत् खूब आदरणीय आसुतोष मिश्र जी।छठे शैर में ही की आवृत्ति हुई है शायद।सादर

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 15, 2016 at 1:11pm

आदरणीय आशुतोष भाई ,  वहुत अच्छी गज़ल कही है , आज की उपचार पद्धति और डाक्ट्ररों कर अच्छा व्यंग्य किया है । हार्दिक बधाई आपको ।

मोतियों से दांत दिखला पेस्ट जो करते प्रचारित

नीम की दातून से निज दांत घिसते जा रहे हैं        -- इस शेर मे बात आप पूरी कह नही पाये हैं ऐसा लगता है , न तो बात पक्ष मे है न ही विपक्ष में ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 15, 2016 at 12:22pm

आदरनीय सुरेश जी रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रीय के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर 

Comment by Sushil Sarna on August 14, 2016 at 8:53pm

आदरणीय आशुतोष जी वर्तमान को जीती इस सटीक ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई। 

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 14, 2016 at 6:15pm
आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्रा जी आज के बदलते परिवेश पर बहुत ही सुन्दर रचना है । बधाई प्रेषित है ।

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