"बहू ,मेरी पूजा की थाली का ध्यान रखना ,वो तुम्हारी काम वाली है न ,शकूबाई , तुम लोगो ने उसे घर की मालकिन बना रखा है , पर मेरे पूजा के कमरे से दूर रखना ! न जात का पता न धरम का, दिनभर शकूबाई , शकूबाई " बुदबुदाती दादी दुसरे कमरे में चली गई।
शकूबाई ने दरवाजे से दादी की हिदायत सुन ली थी, वो चुपचाप सिर नीचे किये, बाहर के मेनगेट को साफ़ करने लग गई। तभी फूल वाला,माला लेकर आया, और शकूबाई के हाथो मे माला थमा कर चला गया। दादी पूजा की थाली लेकर मन्दिर जाने के लिये पोते के साथ बाहर निकली और बोली
"अरे अभी तक फूल वाला , माला नहीं देकर गया" ?
तभी दादी की निगाह शकूबाई पर पडी जो माला लिये खड़ी थी। उसके हाथ में माला देख दादी आग बबूला हो गई।
"सब अपवित्र कर दिया, इसके हाथ की माला, भगवान कैसे स्वीकार करेगे "?
शकूबाई ने माला हाथ पीछे कर छिपाने का प्रयास किया ,तभी एक गाय ने माला झपट ली और देखते ही देखते पूरी माला खा गई। यह देख पोते ने दादी से कहा:
"दादी आप तो कहती है, की गाय में ३३ करोड़ देवता निवास करते है , जब उन्हें इस माला से परहेज नही ,तो आपके मंदिर वाले भगवान को क्यों ? वो
अलग है क्या?
दादी ने कहा "नही बेटा वो तो अलग नहीं है पर हम इन्सान अलग अलग हो गये।"
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अंध विश्वासों में तंज कसती हुई अच्छी कथा बनी है आपकी हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय राजेन्द्र कुमार जी
आदरणीय राजेंद्र जी ..आपकी लघु कथा में बहुत ही सार्थक सन्देश छुपा है ..इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादr
बहुत बढ़िया कथा आदरणीय ,बधाई ।
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