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तज़मीन बर तज़मीन

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन

तज़मीन बर तज़मीन हज़रत "क़मर" उज्जैनी बर ग़ज़ल हज़रत-ए-'मख़मूर दहलवी'


दिल-ए-बर्बाद ये हसरत ,ये अरमाँ कौन देखेगा
हमारे दिल में जो है दर्द पिन्हाँ कौन देखेगा
बताओ तो ज़रा ये ग़म का तूफ़ाँ कौन देखेगा
'ख़ुशी देखी है बर्बादी का समाँ कौन देखेगा'
'चमन से रुख़्सत-ए-दौर-बहाराँ कौन देखेगा'
'जलाकर दिल मिसाल-ए-शम्अ-ए-सौज़ाँ कौन देखेगा'
"मुहब्बत में शब-ए-तारीक-ए-हिजराँ कौन देखेगा
हमीं देखेंगे ये ख़्वाब-ए-परीशाँ कौन देखेगा"
_____

रहेगा होश में कब कोई इंसाँ कौन देखेगा
किसे है शौक़ बर्क़-ए-तूर रक़्साँ कौन देखेगा
नहीं किसको बताओ ख़ौफ़-ए-ईमाँ कौन देखेगा
'है किस में ताब ये हुस्न-ए-नुमायाँ कौन देखेगा'
'क़रीब आकर जमाल-ए-रूए जानाँ कौन देखेगा'
'किसे है जान से जाने का अरमाँ कौन देखेगा'
"इन आँखों से तजल्ली को दरख़्शाँ कौन देखेगा
उठा भी दो नक़ाब-ए-रूए ताबाँ कौन देखेगा"
_____

वो होते पास तो आसान होती मौत भी अपनी
रहेगी उन से पौशीदा हमेशा बेबसी अपनी
क़ज़ा सर पर खड़ी है उम्र पूरी हो चुकी अपनी
'हुई है आज तक पूरी न हो पूरी ख़ुशी अपनी'
'वो आ जाते तो हम कहते तमन्ना-ए-दिली अपनी'
'पस-ए-मुर्दन ही अब जायेगी ये बैचारगी अपनी'
"यही इक रात है बस काइनात-ए-ज़िन्दगी अपनी
सहर होते हुए ऐ शाम-ए-हिजराँ कौन देखेगा"
_____

गवारा हो नहीं सकता कभी ये मेरी ग़ैरत को
हमेशा दिल में रक्खा मैंने अपने दिल की हसरत को
सितम सह कर भी पौशीदा रखा है इस हक़ीक़त को
'निहाँ रक्खा है दिल में उम्र भर सौज़-ए-मुहब्बत को'
'छुपाया है अभी तक मैंने उनसे अपनी वहशत को'
'क़लक़ होगा उन्हें,देखेंगे जब वो मेरी हालत को'
"कुछ ऐसा हो दम-ए-आख़िर न आऐं वो अयादत को
उन्हें अपने किये पर यूँ पशेमाँ कौन देखेगा"
_____

"समर" साहिब ये दुनिया है हमें दुनिया से क्या लेना
करेगी हर तरह बदनाम ये,इसका भरोसा क्या
इरादा मैकशी का है तो फिर चलिये गिला कैसा
' "क़मर" हमने किसी के फ़ेल से कब वास्ता रक्खा'
'हमारी बादा नोशी का है फिर दुनिया को क्यूँ शिकवा'
'नहीं जा सकते मैख़ाने में हम अच्छा बहुत अच्छा'
"चलो "मख़मूर" तन्हाई में शग़्ल-ए-मैकशी होगा
छुपा कर ले चलो पीने का सामाँ कौन देखेगा"

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by shree suneel on June 6, 2016 at 4:15am
आदरणीय समर कबीर सर जी, ये भी ख़ूब है... मज़ा आ गया पढ़ कर. तजमींन के बाद तजमींन बर तजमींन! बहुत हीं शानदार.. उम्दा प्रस्तुति आदरणीय. ये भी जानकर खुशी हुई कि इसकी शुरुआत आपके वालिद साहब ने की थी. यकीनन इस विधा को जिन्दा रखना होगा. मैं समझता हूं कि ओ. बी. ओ इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकेगा. .
इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक हार्दिक बधाई आदरणीय. सादर
Comment by Ashok Kumar Raktale on June 5, 2016 at 3:38pm

आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, बहुत ख़ुशी की बात  है की तज़मीन बर तज़मीन जैसी विधा की शुरुआत आपके वालिद साहब ने की. तज़मीन बहुत सुंदर विधा है साथ ही  इस बात का भी एहसास है की यह आसान कार्य नहीं है. फिर तज़मीन बर ताज़मीन के बारे में क्या कहूँ. वाह ! आपकी यह प्रस्तुति बहुत ही कमाल की है. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. सादर.

Comment by Samar kabeer on June 3, 2016 at 11:31pm
आली जनाब विजय शंकर जी आदाब,आपकी पारखी नज़र ने मेरी रचना का मान बढ़ाया ,लिखना सार्थक हुवा,सुख़न नवाज़ी और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on June 3, 2016 at 11:29pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,आपकी मुहब्बतों का मैं दिल से क़ाइल हूँ,तज़मीन बर तज़मीन आपको पसंस आई,लिखना सार्थक हुवा,सुख़न नवाज़ी और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on June 3, 2016 at 11:26pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब ,तज़मीन बर तज़मीन आपको पसंद आई ,लिखना सार्थक हुवा, सुख़न नवाज़ी और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
तज़मीन "उर्दू शायरी की एक सिन्फ़् है जो आजकल देखने में नहीं आती,आप अपनी पसन्द के किसी शाइर की ग़ज़ल ले लीजिये,सबसे पहले मतला के सानी मिसरे पर तीन मिसरे कहिये उसी भाव में,फिर पहले शैर का ऊला मिसरे पर तीन मिसरे कहिये जो सानी पर चस्पाँ हो रहे हों,ऊला मिसरे पर मिसरा लगाने में रदीफ़ और क़ाफ़िया मज़कूर मिसरे को देखते हुए आप खुद तजवीज़ कर सकते हैं,और फिर इसी तरह मिसरे चस्पाँ करते जाइये,जिस ग़ज़ल की आप तज़मीन कहें और उसमें मक़्ता है तो आपको भी अपने तीन मिसरों में से किसी एक में अपना तख़ल्लुस का इस्तेमाल करना लाज़मी है । इसी तरह अगर तज़मीन बर तज़मीन कहना है तो जिसने पहले तज़मीन की है उसी के चुने हुए रदीफ़ क़ाफ़िये पर आपको भी तीन मिसरे कहना है ।
इस मंच पर ये मेरी तीसरी प्रस्तुति है,इस विधा का आग़ाज़ तरही मुशायरा अंक 71 से हुआ ,जिसमें जनाब सौरभ पांडे साहिब की तरही ग़ज़ल पर मैंने तज़मीन कही,इस पर चर्चा भी बहुत हुई है,आप चाहें तो तरही मुशायरा अंक 71 खोलकर उसे पढ़ सकती हैं ।उसके बाद मुशायरे के दूसरे दिन मैंने एक तज़मीन पेश की थी और उसके बाद अब ये तज़मीन बर तज़मीन आपके सामने है ,एक बात और बताना चाहूँगा कि हिन्दुस्तान में तज़मीन तो कही गई लेकिन तज़मीन बर तज़मीन मेरे वालिद-ए-मरहूम हज़रत सय्यद रफ़ीक़ अहमद "क़मर" उज्जैनी साहिब ने पहली बार कही और इसके बाद उन्हीं के नक़्श-ए-क़दम पर चलते हुए मैंने इसे आगे बढ़ाया,आपसे आशा करता हूँ कि आप भी इस विधा पर प्रयास कर इसे ज़िंदा रखने में सहयोग दें ।
Comment by Samar kabeer on June 3, 2016 at 11:09pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,सुख़न नवाज़ी और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Dr. Vijai Shanker on June 3, 2016 at 5:46pm
"समर" साहिब ये दुनिया है हमें दुनिया से क्या लेना "
आदरणीय समर कबीर साहब, नमस्कार , क्या खूब लिखते हैं आप, आनंद आता है। यह विधा तो बहुत ही रोचा है , उस पर आपकी खूबसूरत प्रस्तुति, बहुत बहुत बधाई, सादर।
Comment by Sushil Sarna on June 3, 2016 at 1:43pm

"मुहब्बत में शब-ए-तारीक-ए-हिजराँ कौन देखेगा
हमीं देखेंगे ये ख़्वाब-ए-परीशाँ कौन देखेगा"

आदरणीय समर साहिब _/\__/\__/\__/\_आपकी इस विधा,शब्दसौंदर्य,भावों का सैलाब उफ्फ क्या क्या नहीं देखा हमने आपकी मखमली अहसासों वाली प्रस्तुति में। आपको और आपकी कलम को बारम्बार सलाम सलाम सलाम।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 3, 2016 at 12:30pm

वाह्ह्ह मजा आ  गया पढ़कर. भाई जी इस विधा को तो नहीं जानती किन्तु इसे पढ़कर मुग्ध हूँ इस विधा की जानकारी भी मिल जाती तो

क्या कहने थे |

दिल से बस वाह वाह वाह .. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 3, 2016 at 9:29am

आदरणीय समर भाई , इस तज़मीन विधा ने तो मुझे मौन कर दिया है , बस आपकी उस्तादी देख रहा हूँ और खुश हो रहा हूँ कि आप जैसे उस्ताद हमारे अपने हैं , दिली मुबारकबाद आपको ।

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