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एक ग़ज़ल ओबीओ के नाम

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन/फ़ेलान

ज पर तुझको देखना है मुझे
त्र में उसने ये लिखा है मुझे

स्ल-ए-नव से मदद का तालिब हूँ
बुर्ज नफ़रत का तोड़ना है मुझे

क्या कहूँ ,कब मिलेगा मीठा फल   
ब्र करना तो आ गया है मुझे

ज तेरे बग़ैर ये जीवन
र्क जैसा ही लग रहा है मुझे

लाख दुश्वारियाँ हों, जाऊँगा
श्क़ तेरा बुला रहा है मुझे

र्म गुफ़्तार से "समर" देखो
आज फिर ज़ैर कर लिया है मुझे

_________

ओज :- ऊँचाई
नस्ल-ए-नव :- नई नस्ल
बुर्ज :- गुम्बद
गुफ़्तार :- बोलचाल

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on May 3, 2016 at 10:36pm
जनाब योगराज प्रभाकर जी आदाब,इस ग़ज़ल की हक़ीक़त से मेरे अलावा सिर्फ़ आप वाक़िफ़ हैं,कि ये क्यूँ वजूद में आई ,काश कि मैं अपना कलेजा चीर कर दिखा सकता लेकिन मेरी ये ग़ज़ल कलेजा चीर कर दिखाने जैसी ही है ,ऐसा मेरा विश्वास है ,आपकी मुहब्बतों और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Nita Kasar on May 3, 2016 at 4:05pm
ये तो पुरकशिश ग़ज़ल कही है आपने आद०समर कबीर जी ये आपके ओ बी ओ के प्रति स्नेह का प्रतीक है बधाई आपको ।
Comment by Ravi Shukla on May 3, 2016 at 2:43pm

आदरणीय समर साहब बहुत ही खूब सूरत तरीके से आपने अो बी ओ को परिभाषित किया है इस के लिये आपको ह‍ार्दिक बधाई । आदरणीय तसदीक साहब ने  तकाबुले रदीफेन का प्रश्‍न किस तरह से उठाया है समझ नहीं आया हम जितना सीख पाये है उसके हिसाब से ओ और ऐ दोनो की मात्राएं अलग है  दोनो के उच्‍चारण में स्‍वर भी भिन्‍न है । ( हम यहां हिंदी भाषा के माध्‍यम से ही गजल की जानकारी ले रहे है ) तसदीक साहब किस अरूज के हिसाब से कह रहे है अगर स्‍प्‍ष्‍ट करें तो जानकारी में हमारे भी इजाफा हो जाए । सादर ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 3, 2016 at 1:27pm

आदरणीय समर कबीर जी, आपने ओपन बुक्स ऑनलाइन को समर्पित शानदार ग़ज़ल कही है. अद्भुत. इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई.आपकी प्रस्तुतियों से मंच सदैव समृद्ध होता रहा है. हार्दिक आभार आपका.  सादर 

Comment by Sushil Sarna on May 3, 2016 at 1:03pm

आदरणीय समर साहिब ओ बी ओ के सफल 6 वर्षों के सफर को आपने अपनी कलम से यादगार बना दिया है। इस दिलकश अशआरों वाली ग़ज़ल के लिए बन्दा दिल से आपको सलाम  _/\_ करता है। 

Comment by नादिर ख़ान on May 3, 2016 at 11:42am

जनाब समर साहब नायाब ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद। आदरणीय योगराज सर से सहमत हूँ, मिसरा  तरही मुशायरे के लिए परफेक्ट है। 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 3, 2016 at 10:30am

//ब्र करना तो आ गया है मुझे//

यह मिसरा भविष्य में हमारे तरही मुशायरे के लिए परफेक्ट रहेगा I :))


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 3, 2016 at 10:26am

आपके टेलेफोनिक आदेश के बाद मक़ते में तरमीम कर दी गई है मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब !  


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 2, 2016 at 8:30pm

ओपन बुक्स ऑनलाइन के छ: वर्ष पूर्ण होने पर छ: अशआर से सुशोभित यह ग़ज़ल और मिसरों के पहले अक्षर को जोड़ते हुए ओपन बुक्स ऑनलाइन लिख जाना ....आहा !! नतमस्तक हूँ आदरणीय समर साहब, सभी अशआर एक से बढ़कर एक हुए हैं, बहुत बहुत बधाई.

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 2, 2016 at 8:24pm

मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब ,  ओपन बुक्स ऑनलाइन को समर्पित बेहतर ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। ... माफ़ कीजिये जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ , क्या मक़ते में तकाबुले रदीफेन सूत नहीं होगा। ........ शुक्रिया

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