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आप पहले झोपडी तो इक बनाकर देखिये

२१२२/२१२२/२१२२/२१२

आप पहले झोपडी तो इक बनाकर देखिये

ख्वाब फिर महलों के भी दिल में सजा कर देखिये

मैं नहीं हूँ तो हुआ क्या ये ग़ज़ल मेरी तो है

मेरी गजलें  भी कभी तो गुनगुना कर  देखिये

जिस तरफ देखोगे, तुमको बस नजर आयेंगे हम

है मगर बस शर्त इतनी मुस्कुराकर देखिये

है विरह के बाद में ही यार मिलने का मज़ा

आग पहले ये विरह की खुद लगा कर देखिये

चीज़ मय अच्छी बुरी है आप मत बोले अभी

जाम पहले ओंठो से अपने लगाकर देखिये 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Ravi Shukla on April 28, 2016 at 12:46pm

आदरणीय आशुतोष जी बढिया गजल कही है आपने दिली बधाई स्‍वीकार करें  यदि गजलों  शब्‍द टंकण त्रुटि नहीं है तो हम भी आदरणीय गिरिराज जी की बात से सहमत है । सादर । 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 28, 2016 at 12:09pm

आदरणीय भाई धर्मेन्द्र जी ..रचना को आपका स्नेह मिला और मुझे इससे नयी उर्जा मिली ..सादर धन्यवाद के साथ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 28, 2016 at 12:08pm

आदरणीया राज जी ..आपने जो संसोधन किया है उससे शेर अच्छा लग रहा है मैं संसोधन कर लूँगा ..आपके मार्गदर्शन और रचना पर उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ ..सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 28, 2016 at 12:06pm

आदरणीय मिथिलेश जी ...आपकी रचनाओं को पढ़कर और अपने रचना पर आपके स्नेहिल मार्गदर्शन से हौसला बना रहता है .आपके मशविरे के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 28, 2016 at 12:01pm

आदरणीय भाई साब ..काफी लम्बे अरसे के बाद मंच से जुड़ पाया ..मेरी रचना धर्मिता की इस यात्रा पर आपके साथ चलते हुए मैंने सतत सीखा ..आपके मशविरे पर अमल करूंगा और रचना संसोधित कर लूँगा ..आपके ऐसे स्नेह और आशीरवाद की कामना के साथ ..सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 28, 2016 at 11:55am

आदरणीय सुशील जी ..आप सब के स्नेह और मार्गदर्शन से सीखने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 28, 2016 at 11:54am

आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:33pm

अच्छा प्रयास है आदरणीय आशुतोष जी, दाद कुबूल करें।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 26, 2016 at 10:49pm

आदरणीय आशुतोष जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है हार्दिक बधाई. यह भी अवश्य है कि मिसरों के विन्यास को बदलकर ग़ज़ल में निखार लाया जा सकता है. गुणीजनों ने भी इस तरफ इशारा किया है. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 26, 2016 at 3:10pm

वाह वाह दिलकश ग़ज़ल कही है |  एक मिसरे को इस तरह कहना चाहूँगी  शायद आपको भी मंजूर होगा ....

जाम पहले ओंठो से अपने लगाकर देखिये----जाम होठों से  जरा पहले  लगाकर देखिये

बहुत बहुत बधाई आ० आशुतोष जी 

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