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गीत- भावना के वाह को अब रोक लो

भावना के वाह को अब रोक लो तुम।
कहो कुछ भी किन्तु पहले सोंच लो तुम।।
भावना के वाह...........

शब्द-शर मुख से निकल ना लौटता है।
सालता तन-बदन हिय को घोंटता है।
कर न दें आहत किसी को शब्द तेरे,
हे! सखे! रुककर जरा यह सोंच लो तुम।
भावना के वाह.............

मान देकर हृदय सबका जीत तो लो।
शब्द-मधु बरसा उरों को सींच तो लो।
मान दोगे मान पावोगे सदा ही,
बोल मीठे बोल दो तो बोल लो तुम।
भावना के वाह...........

है बड़ा कोई यहाँ छोटा न कोई।
काम आये राह में कब भ्रात कोई।
स्नेह का सम्बन्ध ही सबसे उचित है,
तथ्य यह मन की तुला में तोल लो तुम।
भावना के वाह..............

मनुज क्यों खग-जन्तु भी रखते क्षुधा हैं।
स्नेह तो सबके लिए अनुपम सुधा है।
स्नेह के बस में सकल जग जगतपति भी,
स्नेह से हिय स्नेहनिधि से जोड़ लो तुम।
भावना के वाह.........

मनुज हो तुम मनुजता का मान रक्खो।
बंधु-बांधव ही यहाँ सब ध्यान रक्खो।
सौख्य पावोगे सदा सुख दे मनुज को,
दुख घटे बँट, द्वार सुख के खोल लो तुम।
भावना के वाह........

टूटते हर तार हिय के जोड़ देना।
धार मधि ना डूबते को छोड़ देना।
कर बढ़ा असहाय्य का कर थाम लेना,
भाव में सहयोग-सेवा घोल लो तुम।
भावना के वाह.............

-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by vijay nikore on April 6, 2016 at 12:56pm

अच्छा संदेश देती हुई सुन्दर रचना। बधाई।

Comment by amita tiwari on April 6, 2016 at 12:43am

खूब सुन्दर रचना ......हार्दिक बधाई

Comment by रामबली गुप्ता on April 5, 2016 at 10:51am
आद.सुशील सरना जी, आद.डॉ आशुतोष सर जी,एवं आदरेया राजेश कुमारी यदि मेरे ब्लॉग की अन्य रचनाओं को पढ़कर अपने बहुमूल्य सुझाव दें तो आप सब की अति कृपा होगी मुझ पर।सादर
Comment by रामबली गुप्ता on April 5, 2016 at 10:20am
उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार आदरेया राजेश कुमारी जी
एवं आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 4, 2016 at 9:28pm

शब्द-शर मुख से निकल ना लौटता है।
सालता तन-बदन हिय को घोंटता है।
कर न दें आहत किसी को शब्द तेरे,
हे! सखे! रुककर जरा यह सोंच लो तुम।
भावना के वाह.............आपकी कोई रचना पहली बार पढ़ रही हूँ ,बहुत अच्छी प्रस्तुति है सार्थक सन्देश देती हुई इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई आपको आ० रामबली जी |

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 4, 2016 at 3:07pm

आदरणीय रामबली जी रचना के माध्यम से आपने बढ़िया सन्देश दिया है इस रचना के लिए ह्रदय ताल से बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by रामबली गुप्ता on April 3, 2016 at 7:29pm
सादर आभार आद.गोपाल सर
सत्य ही विचारा है आपने
वैसे ये गीत संशोधनाधीन ही है इसे और भी सुंदर बनाने का प्रयास है।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 3, 2016 at 3:55pm

aअ० रामबली जी 

निस्संदेह  मनोरम रचना  . 'भावना के वाह;'  का  कोई और विकल्प इस गीत को  अधिक ऊर्ज्वस्वित कर सकता है . आ० राम बली जी आपकी पहली रचना मेंने पढी , अभिभूत हुआ  आपको बधाई 

Comment by रामबली गुप्ता on April 3, 2016 at 10:44am
सादर आभार आ. सुशील सर
Comment by Sushil Sarna on April 2, 2016 at 9:07pm

शब्द-शर मुख से निकल ना लौटता है।
सालता तन-बदन हिय को घोंटता है।
कर न दें आहत किसी को शब्द तेरे,
हे! सखे! रुककर जरा यह सोंच लो तुम।
भावना के वाह.............
अति सुंदर आदरणीय रामबली गुप्ता जी बहुत ही सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति हुई है। शब्द चयन सरल और भावपूर्ण , प्रवाह ऐसा कि अंत तक पाठक उसका रस्वादन करें .... दिल से बधाई स्वीकार करें।

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