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ग़ज़ल -नूर- कहानी नहीं चली.

ग़ज़ल 
२२१/२१२/११२२/१२१२ 

कश्ती थी बादबानी, हवा ही नहीं चली,
मर्ज़ी नहीं थी रब की सो अपनी नहीं चली.
.
ज़ह’न-ओ-जिगर की, दिल की, अना की नहीं चली
मौला के दर पे क़िस्सा कहानी नहीं चली.  
.
कितने थे शाह कितने क़लन्दर क़तार में,
धमक़ी तो छोड़ दीजिये, अर्ज़ी नहीं चली.
.   
धुलवा दिए थे अश्क-ए-नदामत से सब गुनाह,   
चादर वहाँ ज़रा सी भी मैली नहीं चली.
.
होता रहा हिसाब-ए-अमल, रोज़-ए-हश्र, ‘नूर’  
कोई वहाँ पे बात किताबी नहीं चली. 
.
पुछल्ला 
.
हम मुफ़्लिसी के दौर में मैख़ाने कम गए,
हम को शराब, पर कभी, सस्ती नहीं चली.
.
निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 13, 2016 at 4:54pm

शुक्रिया आ. सतविन्द्र जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 13, 2016 at 4:54pm

शुक्रिया आ. रामबली गुप्ता जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 13, 2016 at 4:54pm

शुक्रिया आ. नरेंद्र सिंह जी 

Comment by Samar kabeer on March 13, 2016 at 10:24am
जनाब निलेश'नूर'जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल के लिये दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
पुछल्ले की ज़रूरत तो वहां होती है जहां अशआर की तादाद पर पाबन्दी हो ?
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 12, 2016 at 7:17pm

बेहद्खुब आदरणीय 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on March 12, 2016 at 6:20pm
बहुत खूब
Comment by रामबली गुप्ता on March 12, 2016 at 4:36pm
बहुत खूब
Comment by narendrasinh chauhan on March 12, 2016 at 1:18pm

लाजवाब ,

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