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ग़ज़ल-नूर ख़ुशबुओं का सफ़र

२१२२/१२१२/२२/

ख़ुशबुओं का सफ़र नहीं आया,
खत लिए नाम:बर नहीं आया.
.
सुब’ह, राहें भटक गया... कोई,
शाम तक उस का घर नहीं आया.
.
देर तुम से न देर मुझ से हुई,
वक़्त ही वक़्त पर नहीं आया.
.  
चलते चलते गुज़ार दी सदियाँ,
अब भी मौला का दर नहीं आया.   
.
जिस्म की छाँव में रखा जिन को,
उन पे मेरा असर नहीं आया.
.
‘नूर’ ऐसा!! निगाहें क्या उठती,
हश्र पर कुछ नज़र नही आया.
.
मौलिक / अप्रकाशित 
निलेश "नूर"

Views: 405

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on February 14, 2016 at 7:59pm

शुक्रिया तेज वीर सिंह साहब

Comment by TEJ VEER SINGH on February 14, 2016 at 5:44pm

हार्दिक बधाई आदरणीय नीलेश जी!बेहतरीन गज़ल!

चलते चलते गुज़ार दी सदियाँ, 
अब भी मौला का दर नहीं आया. 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on February 12, 2016 at 3:37pm

शुक्रिया आ. श्याम जी

Comment by Shyam Narain Verma on February 12, 2016 at 11:03am
इस खूबसूरत  रचना की हार्दिक बधाई

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