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तमाचा : लघुकथा : हरि प्रकाश दुबे

सर्द सुबह में गुनगुनी धूप आज विधायक ‘बाबू राम’ के सरकारी बंगले पर मेहरबान थी, ‘बाबू राम’ जी, जो अब मंत्री भी बन चुके थे अपने सफ़ेद कुरते, पायजामे के साथ नीली जैकेट पहन, इत्र छिड़क कर अपने आप को शीशे में निहार-निहार कर आत्ममुग्ध हुए जा रहे थे तभी उनके नौकर ‘हरिया’ ने आवाज़ लगाई, “साहब ! साहब ! नाश्ता तैयार है।”

 

“अच्छा तो बाहर गार्डन में लगा दे और सुन ! जरा अखबार भी लेते आना, देखें क्या खबर है आज अपनी।”

 

जी सरकार, ...कहकर ‘हरिया’ चला गया और मंत्री महोदय बाहर जाकर गोल मेज पर टांग पसार कर कुर्सी पर पड़ गए, ‘हरिया’ एक कप चाय के साथ अखबार रख गया और ‘बाबू राम’ खुद को अखबार में खोजने लग गए, तभी अचानक कुछ हो-हल्ला सुनकर उनकी तन्मयता टूटी और उन्होंने देखा बाहर गेट पर कुछ लोग सुरक्षाकर्मीयों से उलझ रहे हैं अब मंत्री जी चिल्लाये.. “अबे.. ‘हरिया’ ! ‘हरिया’, अबे देख तो सही बाहर, क्या पंचायत चल रही है ?”

 

‘हरिया’ गोली की तरह गेट की तरफ भागा और वापस आकर बोला- “सरकार कुछ लोग आपसे मिलना चाह रहे हैं, पर गार्ड लोग उनको आने नहीं दे रहे हैं, कह रहे हैं साहब से दफ्तर में मिलना, पर वो लोग मान नहीं रहें हैं, कहतें हैं आपके गावं / क्षेत्र के लोग हैं और आपसे घर पर ही मिलने की बात हुई थी।”

 

“अरे भूल गया था, ब्राहमण समाज के लोग होंगे, जा, जल्दी से भेज, अबे वोट बैंक हैं हमारे यार ।”

 

“आइये-आइये पाण्डेय जी, आप सभी लोगों को दण्डवत् प्रणाम, आज तो हम धन्य हो गए, साक्षात देवता लोग पधारे हैं, अबे ‘हरिया’ जल्दी से आप लोगों के बैठने की वयवस्था कर, और बताइये पाण्डेय जी कैसे आना हुआ ?”

 

“कुछ नहीं ‘बाबू राम’ जी ये अपने क्षेत्र की कुछ समस्यायें हैं, लिखकर लाये हैं, उधर कोई सुन ही नहीं रहा है इसीलिए.. ।”

 

“आप लोग काहें चिंता करते हैं, समझिये सब काम हो गया, हम देख लेंगें सब, बस अभी आप लोगों के स्नान-ध्यान और भोजन पानी का प्रबन्ध करवाते हैं, बताइये क्या खाएंगे ?”

इधर सब एक दूसरे का मुहँ ताकने लगे और थोड़ी देर के लिए मौन पसर गया कुछ देर बाद पाण्डेय जी ने कहा..........अरे ‘बाबू राम’ जी बस अब इजाज़त दीजिये ।

 

“अरे ऐसे कैसे ? आप लोग इतनी दूर से आये हैं बिना खाए तो हम आपको जाने ही नहीं देंगे, अरे हम समझ रहे हैं, हमारे यहाँ आप क्यों नहीं खाना चाहतें हैं? पर निश्चिंत रहिये।”

“अबे हरिया, सुन तो जरा, वो अपना खानसामा महाराज पंडित है ना ?”.. जी साहब, हरिया ने कहा ।

तब ठीक है, उसी से साहब लोगों के लिए बढ़िया खाना बनवा और ठीक से समझ ले, खाना भी वही परोसेगा, और हाँ सब नए बर्तन में और पानी भी बोतल वाला मंगवा दे, ये देवता लोग हैं, कवनो तकलीफ नहीं होनी चाहिये ।”

 

सबके मुँह पर एक –एक तमाचा पड़ चुका था, किसी के समझ नहीं आ रहा था कि कोई इतिहास दोहरा रहा है या इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है ।  

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

       

         

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Comment by kanta roy on February 23, 2016 at 9:29am
गजब का वाक्य - विन्यास देखने को मिला आपकी इस लघुकथा में । जाति भेद पर यह बढिया व सार्थक तमाचा हुआ है आपका आदरणीय हरि प्रकाश जी । बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 22, 2016 at 12:52pm
बहुत बढ़िया प्रस्तुति है, बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी। शीर्षक पढ़कर ही पाठक पूर्वानुमान से कथा पढ़ने लगता है तो कथा का अंत पहले ही समझ आ जाता है। अतः सार्थक सटीक होते हुए भी मेरे विचार से शीर्षक कुछ और ही रखना था। सादर
Comment by Archana Tripathi on February 22, 2016 at 10:24am
बढ़िया कथा और करारा तंज कसा हैं आपने अपनी कथा से हार्दिक बधाई
Comment by Samar kabeer on February 21, 2016 at 3:10pm
जनाब हरी प्रकाश दुबे जी आदाब,बहुत अच्छी लगी आपकी लघुकथा बधाई स्वीकार करें !
Comment by Manan Kumar singh on February 20, 2016 at 8:31am
बढ़िया संदेश,बधाई!
Comment by Rahila on February 19, 2016 at 8:32pm
सुन्दर लघुकथा हुई आदरणीय दुबे सर जी!बहुत अच्छा विषय और बेहतरीन तंज के साथ रचना के प्रवाह ने चार चांद लगा दिये । बहुत बधाई ।सादर

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