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लाल कलम :लघुकथा: हरि प्रकाश दुबे

आख़िरकार आज पिछले सत्रह सालों की साधना रंग ला ही गई, कसम से क्या–क्या पापड़ बेलने पड़े इस सचिवालय तक पहुँचने के लिए... नए सचिव साहब, मन ही मन सोचते हुए, कभी अपने खूबसूरत दफ्तर और कभी अपने स्वागत में प्रस्तुत फूलों के अम्बार को देख–देख कर मुस्करा रहे थे कि तभी, दरवाजे की घंटी बज उठी, एक आवाज आयी “क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ ? “जी, फ़रमाइए।”
“जय हिन्द सर, मै आपका ‘वैयक्तिक सहायक’ हूँ, आपका इस नए कार्य क्षेत्र में स्वागत है, मेरी तरफ से ये तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये साहब।”
“ओह ! धन्यवाद आपका, पर आपको शायद जानकारी नहीं है, मैं किसी भी तरह का तोहफ़ा या अन्य कुछ स्वीकार नहीं करता।”
“अरे साहब आप गलत समझ रहे हैं, यह नाचीज़ आपको क्या दे सकता है? बल्कि बंदा आज जो कुछ भी है, आप ही की कृपा से है, आप शायद भूल गए मुझे, पर कोई बात नहीं इसे खोलकर तो देखिये, सर ।”
इस बात से सचिव महोदय थोड़ा आश्वस्त होकर बोले--“अच्छा आप ही दिखाइये, क्या लाए हैं ?”
“साहब ये देखिये, बस दो कलम हैं, एक लाल और एक हरी, अरे सचिव हैं आप, दिनभर में कई फाइलें आएँगी और आपको उनका निस्तारण करना पड़ेगा की नहीं?”
“हां बात तो सही है ‘पी.ए साहब’ आपकी ।”
“साहब कहकर क्यों शर्मिंदा कर रहें हैं सर? बस एक निवेदन है आपसे, जरा लाल कलम का उपयोग ज्यादा करियेगा।”
“पर वो क्यों?”
“सर, जब लाल कलम चलेगी तभी तो हरे ...हरे, मतलब हरे रंग की गुंजाईस रहेगी ।”
“सचिव साहब मुस्करा दिए, लगे लाल कलम घिसने और बोले वाह ! क्या फ्लो है यार, पुराने साथी लगते हो पर तुम्हारा नाम भूल रहा हूँ ।”
“हरिश्चंद्र नाम है मेरा, सर ।”
यह सब देखकर हरी कलम मुस्करा रही थी पर लाल कलम, स्याही की जगह अपना खून बहा रही थी ।

© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by kanta roy on February 23, 2016 at 10:32am
“हरिश्चंद्र नाम है मेरा, सर ।”----- वाह ! वाह ! गजब का कटाक्ष रोपित है यहाँ ।क्या खूब शब्दों के गढ़ते है आप आदरणीय हरि प्रकाश जी , लाल कलम पर लाल सलाम आपको ।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 22, 2016 at 11:25pm
बधाई आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी , इस सही प्रस्तुति के लिए।
पर एक सच्चाई यह भी है अब कलम स्याही के रंग के संकेत सब पुरातन व्यवस्था की बात हो गए।
अब कमाई भ्रष्टाचार नहीं व्यवस्था का स्वरूप है , अब तो अगर ईमानदार ज़िंदा है तो वह कहानी है।
आज भ्रष्ट वह है जो ईमानदार है क्योंकि वही एक अव्यवहारिक है जो हर वख्त व्यवस्था के लिए , कमजोर ही सही पर , ख़तरा बना रहता है।
फिर भी ऐसी कथाएं लिखी अवश्य जानी चाहिए ,लोगों को पता तो चले कि लेखन अभी जाग रहा है।
सादर।
Comment by Pawan Jain on February 22, 2016 at 10:45pm

जब लाल कलम चलेगी तभी तो हरे....हरिश्चंद्र नाम है ।बहुत बढ़िया आदरणीय ,बेहतरीन तंज ।बहुत बहुत बधाई आदरणीय।

Comment by Sushil Sarna on February 22, 2016 at 7:49pm

वाह आदरणीय वाह बहुत ही खूबसूरत गहन अर्थ लिए लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकार करें। 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on February 22, 2016 at 2:19pm
बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है आदरणीय।एकदम कसी हुई तजंदार।हार्दिक बधाई।
Comment by Rahila on February 22, 2016 at 1:46pm
शानदार रचना आदरणीय सर जी! सब जगह यही हाल है लेकिन लाल कलम की स्याही खत्म होने का नाम नहीं लेती । बहुत बधाई आपको ।सादर

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