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उस दिन जब हम मिले थे 

पहली बार

हम चुप रहे

या यूँ कहो बोल ही न सके

और फिर यूँ ही मिलते रहे

तब तक  

जब तक तुमने शुरु नही किया

बोलना

हालांकि मैं 

बोल न सकी फिर भी

अधर थरथराये जरूर

पर खोल न सकी मुख

पर तुमने जब शुरू किया

तो जाने कहाँ से

शब्दों का समंदर उमड़ पड़ा  

और मैं

उसके घात-प्रतिघात के बीच

खाती रहे हिचकोले

मंत्र-मुग्ध, आतुर, विह्वल  

 

मैं जानती हूँ

कि कवि नहीं हो तुम

पर उस दिन

तुमने जो कुछ भी कहा

वह कविता थी

या कविता वह थी

जो कुछ उस दिन मैंने समझा

तुम्हारी वाणी के कम्प में   

किन्तु यह भी सच है

कि यूँ तो पढी होंगी

ढेर सी कविताये

मैंने दृप्त जीवन में

पर जो कुछ सुना था

मैंने सिर्फ तुमसे    

वह एक कविता

शायद मैं समझ पायी

अपने ही स्वार्थ से

या बाध्य होकर  

अन्तस की भावना से

 

हाय ! पर रह गयी  

कविता धरोहर सी

मेरे दग्ध अंचल में  

और कवि

दुनिया की भीड़ में खो गया

जिसकी तलाश में    

दुनिया खंगालती रही

मैं सारी उम्र   

अंतिम क्षणों तक  

आँखों के पथराने तक

जिस्म और आँखों के

बेनूर होने तक  

शायद उस

कविता के

ठीक से मर जाने तक

(मौलिक व् अप्रकसित )

  

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Comment

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Comment by vijay nikore on January 3, 2016 at 6:26pm

इतनी अच्छी रचना पढ़कर किसको आनन्द नहीं आएगा। बधाई।

Comment by pratibha pande on January 2, 2016 at 5:51pm

 

मैं जानती हूँ

कि कवि नहीं हो तुम

पर उस दिन

तुमने जो कुछ भी कहा

वह कविता थी.......बहुत सुन्दर भाव , बधाई  स्वीकार करें आदरणीय   

सादर 

Comment by Samar kabeer on January 1, 2016 at 5:26pm
आली जनाब डा.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,"और कवि दुनिया की भीड़ में कहीं खो गया"वाह,शानदार,अतुकांत कविता में आपका जवाब नहीं,इस कविता के लिये दाद के साथ बधाई स्वीकार करें |
Comment by Shyam Narain Verma on January 1, 2016 at 11:37am
लाजवाब रचना है बहुत बहुत बधाई आपको ..सादर 

कृपया ध्यान दे...

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