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साहित्यकार कलाकार या गिरगिट के अवतार [व्यंग्य]. अखिलेश कृष्ण

अजी सुनते हो ..... पप्पू के पापा ।

 

धीरे बोलो भागवान, पड़ोसी क्या सोचेंगे।

 

मैंने कहा छोटे बड़े मँझले साहित्यकारों और पुरस्कृत कुछ लोग लुगाइयों में सम्मान लौटाने की होड़ लगी है। इन सब के थोपड़े हर चैनल्स में बार बार दिखाया जा रहा है। आप भी अपना सम्मान लौटा दीजिये।

 

कौन सा सम्मान ?

 

ये लो, ऐसे पूछ रहे हो जैसे 10–20  पुरस्कार और सम्मान प्राप्त कर चुके हो और सिर्फ नोबेल पुरस्कार ही लेना बाकी है। अरे जीवन में एक ही बार तो सम्मानित हुए हो, उसी साल मैं बहू बनकर इस घर में आई थी। शायद किसी कविता ......

 

हाँ याद आया, एक कविता मैंने  पैंतीस बरस पहले लिखी थी। युवा वर्ग के लिए प्रांतीय स्तर पर आयोजित इस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार के रूप में मुझे एक शाल श्रीफल और 1100 /- रुपये नकद देकर सम्मानित किया गया था।

 

बस लौटा दीजिये सब कुछ। बाजू में मुझे बिठाकर घोषणा करना, चैनल्स वालों के सभी प्रश्नों का जवाब मैं दूंगी।

 

क्या कह रही हो, किसी ने एक लाख, दो लाख और किसी ने पाँच लाख लौटाने की घोषणा टीवी के समक्ष किया है,  इस 1100  रुपये के लिए टीवी वाले तो दूर कोई  चार पेज का अखबार निकालने वाला भी नहीं आएगा।

 

आखिर तुम ठहरे श्रीमान लल्लू प्रसाद छत्तीसग़ढ़िया, कैसे समझोगे। उस जमाने में पाँच साढ़े पाँच साल में रकम दुगनी हो जाती थी, पोस्ट आफिस और बैंक में भी। इस हिसाब से हमें एक शाल श्रीफल और 140,800  रुपये लौटाना है।

       

          सभी चैनल्स को आमंत्रित कर पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दीजिए, जिला प्रांत क्या पूरे देश में तहलका मच जाएगा और हमारा नाम भी होगा। पैसे की चिंता मत करो, मेरे गहने गिरवी रख दो या बेच दो। लेकिन गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले इन अवसरवादी साहित्यकारों को सबक सिखाना है जो सिर्फ मूलधन लौटाकर विरोध प्रकट कर रहे हैं और टीवी के समक्ष सिर ऊँचा कर उस समय से अधिक सम्मान पाने का नया जुगाड़ कर रहे हैं। एक महोदय टीवी पर इस संबंध में हो रही चर्चा में ब्लैंक चेक लेकर आ गये यह सोचकर कि पक्ष का पलड़ा भारी हुआ और कहीं मैं भी भावुक हो गया तो सम्मान की राशि चेक द्वारा उसी समय लौटा दूँगा, है न मजे की बात। लेकिन जिस सम्मान के कारण साहित्यकारों कलाकारों को पद प्रतिष्ठा और प्रमोशन मिला है उसे ये किस तरह लौटायेंगे ?  आश्चर्य नहीं कि इनमें से कुछ एक की शादी भी इसी सम्मान और पद के कारण ही अच्छे परिवारों में हुई होगी क्या उसे भी ..... ?  पुरस्कार लौटाने  वाले बुद्धिजीवी राष्ट्र का अपमान कर रहे हैं आश्चर्य है कि वे राष्ट्र और सरकार को एक मानते हैं। सार्वजनिक रूप से पुरस्कार के लिए आमंत्रित करने के साथ ही यह लिखित निर्देश होना चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में पुरस्कार लौटाना राष्ट्र का अपमान माना जाएगा और उस पर नियमानुसार कार्रवाई भी हो सकती है।

 

        और सचमुच लल्लू प्रसाद छा गये हर चैनल्स पर और उससे ज्यादा तारीफ हो रही है श्रीमती लतिका लल्लू प्रसाद की, जिसने पत्रकार वार्ता में सटीक जवाब देते हुए उन साहित्यकारों कलाकारों और तथाकथित बुद्धिजीवियों की खूब खबर ली। यहाँ तक कह दिया कि अब वे सभी स्वयं का सही आँकलन कर रहे हैं और अपने आप को सम्मान के योग्य न मानते हुए ही गिरगिट की तरह एक दूसरे को देखकर प्राप्त पुरस्कार और सम्मान लौटा रहे हैं और इस बहाने टीवी पर दिखना चाहते हैं। आजकल टीवी पर आना ही सब से बड़ा सम्मान है। पुरस्कार लौटाने वाले साहित्य और कला जगत के इन लोगों को तो लोग पहले ही भूल चुके थे। सत्ता बदली तो और परेशान हो गये। मुफ्त में टीवी पर सूरत दिख जाये और कुछ प्रचार भी हो जाय इससे बड़ी बात इनके लिए और क्या होगी। सिर्फ रेडियो का जमाना होता तो ये पुरस्कार कभी न लौटाते। आप सभी टीवी पत्रकारों से मैं चार प्रश्न पूछना चाहती हूँ, यदि चैनल मालिकों और प्रबंधकों का भय आप लोगों को नहीं है तभी खुले दिल से जवाब दे पायेंगे।

1... 1984 से 2013 तक कई बड़ी और दुखदायी घटनायें देश में हो चुकी हैं आज जो सम्मान लौटा रहे हैं उनसे आपने क्यों नहीं पूछा कि तब आप सम्मान को सीने से लगाये क्यों चुप बैठे रहे। आत्मा की आवाज पर सम्मान लौटाने वालों क्या उस समय आपकी आत्मा कोमा में थी ?

2... भोपाल गैस कांड में जब लोग मर रहे थे तो सम्मान लौटाने वाले ये हृदयहीन लोग कवि सम्मेलन का आयोजन कर रहे थे,  सज्जनों ने समझाया तो कहने लगे ‘ इन मुर्दों के साथ रचनाकार मर नहीं जाता।’  ऐसे उत्तर देने वाले महोदय से आप सभी पत्रकारों ने कोई सवाल क्यों नहीं किया ?  इन्हीं लोगों ने सत्ता के दम पर स्वर्गीय दुष्यंत कुमार जैसे रचनाकार को भी बहुत परेशान किया था।

3... सम्मान, पुरस्कार सरकार ने नहीं, साहित्य अकादमी ने दिया है जिसमें नामी गिरामी रचनाकार और विद्वान एक मत होकर योग्य व्यक्ति का चयन करते हैं लेकिन वे तो सरकार को सम्मान लौटाकर किसी जिद्दी और अज्ञानी की तरह अपनी भड़ास निकाल रहे हैं वह भी भेड़िया धँसान की तरह। यह किसी सरकार का नहीं साहित्य अकादमी और राष्ट्र का अपमान है। आप पत्रकारों ने इस पर प्रश्न क्यों नहीं किया ?

4... लतिकाजी ने पत्रकारों से अंतिम प्रश्न किया - हिंदी के दम पर टीवी चैनल्स की रोजी रोटी चल रही है लेकिन सर्व प्रथम सम्मान लौटाने वाले हिंदी साहित्यकारों का नाम आपने प्रसारित क्यों नहीं किया, उन्हें टीवी पर आमंत्रित क्यों नहीं किया, यह भेद भाव क्यों ? और इन्हें देखकर गिरगिट की तरह रंग बदलकर बाद में सम्मान लौटाने वाले अँग्रेजी साहित्यकारों को आप सब पहले दिखा रहें हैं और टीवी पर भी उन्हें ज्यादा समय दे रहे हैं, यह पाखंड क्यों ?  शर्म आनी चाहिए। हिंदी की खाते हो और अँग्रेजी की बजाते हो !! सारे पत्रकार हकलाने लगे,  किसी प्रश्न का उचित जवाब नहीं दे पाये।

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मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 29, 2015 at 3:42pm

आदरणीय सौरभ भाईजी

इस लेख को कहाँ पहुँचा कर खत्म करूँ समझ नहीं पा रहा था। कश्मीरी पंडितों के कत्ल, प्रांत बदर, विस्थापन और उनसे लूट पाट के समय पूरा बौद्धिक समाज मौन था इस पर भी कुछ लिखने का विचार किया था पर लेख को किश्तों में लिखने के कारण अमानवीय और असहिष्णुता के इस प्रमुख विषय को उठाना ही भूल गया। संतोष इस बात का है कि ज्यादा न कहकर भी मैं वो कह गया जो कहना चाहता था। हार्दिक धन्यवाद लेख को समय देने और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए। व्यंग्य लिखने का मुझे कोई खास अनुभव नहीं है पर लेख पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से लगा कि मैंने इस विषय को उठाकर गलत नहीं किया। पुनः हृदय से आपका धन्यवाद आभार लेख को समय देने के लिए, आपकी टिप्पणी से मेरा लेखन कर्म सार्थक हो गया।

 

Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 28, 2015 at 8:31pm

आदरणीय अखिलेश जी, रचनाकार जो कहना चाहता है, वह कह पाए तो इससे बड़ी उपलब्धि और कोई हो ही नहीं हो सकती . आप सौभाग्यशाली हैं कि आप जो चाहते थे लिख पाए . लेख अच्छा है पर सच कहूँ तो मुझे इसे व्यंग्य कहना नहीं जँचा . आपका व्यंग्य लिखने का ज़्यादा अनुभव नहीं कोई बुरी बात नहीं . मुझे भी ज़्यादा नहीं मगर आदरणीय श्रीलाल शुक्ल, हरिशंकर परसाई तथा शरद जी जोशी को पढ़ कर इतना ज़रूर जाना है कि किसी को सीधे पत्थर दे मारना अगर लेख है तो उसी पत्थर को फूल मे लपेटकर मारना व्यंग्य कहलाता है .
समय निकाल पाएँ तो इन पुराधाओं को पढ़ लीजिए, लिखना भी आ जाएगा . शेष हरि-इच्छा

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 28, 2015 at 8:10pm

आदरणीया प्रतिभाजी

व्यंग्य लेखन का मुझे कोई खास अनुभव नहीं है। लेख पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से लगा कि मैंने इस विषय को उठाकर गलत नहीं किया। हार्दिक धन्यवाद लेख को समय देने और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए।

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 28, 2015 at 8:08pm

आदरणीय प्रदीपजी

मैं लतिकाजी के माध्यम से व्यंग्य को विस्तार देने का प्रयास कर रहा था पर बात बन नहीं पाई। व्यंग्य लिखने का मुझे कोई खास अनुभव नहीं है। संतोष इस बात का है कि ज्यादा न कहकर भी मैं वो कह गया जो कहना चाहता था। हार्दिक धन्यवाद लेख को समय देने और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 24, 2015 at 2:43pm

इस प्रस्तुति में कथ्य व्यंग्य से प्रारम्भ हो कर सहज भाव में सीधे-सीधे अपनी कहने लगता है. आपकी बातें सदस्य पाठकों तक पहुँचे, यह महत्त्वपूर्ण हो गया है. भावों को साझा करने केलिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय अखिलेशभाईजी.

सादर 

Comment by pratibha pande on November 24, 2015 at 12:37pm

पिछले कुछ दिनों से प्रायोजित सा लगने वाला ये जो ' सम्मान सम्मान 'का खेल चल रहा है उस पर एकदम सटीक लिखा है आपने आदरणीय ,हार्दिक बधाई स्वीकार करें आप 

Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 23, 2015 at 6:06pm
लेख अच्छा है अखिलेश जी मगर व्यंग्य नहीं है इसमें ।
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 20, 2015 at 7:32pm

आदरणीय शेख शहजाद भाई

सर्वप्रथम हृदय से धन्यवाद आभार स्वीकार करें इस बड़ी रचना को समय देने के लिए। आपकी प्रतिक्रिया सही है शुरुवात में जो बात थी अंत तक निभा नहीं पाया।

शीर्षक छोटा था पर फिल्मी और अन्य लोगों को भी रंग बदलते देखा तो कलाकार जोड़ना सही प्रतीत हुआ। गिरगिट इसलिए लिखा कि ये सब एक दूसरे को देखकर तात्कालिक लाभ हानि सोचकर [ 50 -- 50 वाले ] मोबाइल आदि से लगातार सम्पर्क में रहकर हफ्तों बाद पुरस्कार लौटाने का स्वांग कर रहे थे। साहित्यकारों कलाकारों का अपना अपना गुट होता है जो मंच और कवि सम्मेलनों में ज्यादा नजर आता है।

      पुरस्कार लौटाने वाले प्रथम 7 – 8 को हम सही मान भी लें तो देखा देखी और बार बार समझाने बुझाने पर उस दल में शामिल होने वालों को हम क्या कहेंगे ? किसी करीबी की मृत्यु पर बहुतों के आँसू नहीं निकलते तो कुछ लोग रोने के लिए प्रेरित करते हैं यह अच्छी बात नहीं है, पर साहित्यकारों ने यही काम किया, रंग बदलना प्रारम्भ हुआ और इसी बात से  प्रेरित होकर मैंने लिखना प्रारम्भ किया। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि टीवी का जमाना नहीं होता तो पुरस्कार लौटाने की नासमझी शायद ही कोई करता।  कोई आश्चर्य नही कि अब भी कुछ लोग चेक बुक लिए टीवी चैनलों से सम्पर्क करने का प्रयास कर रहे हों।

पुनः धन्यवाद , आपकी सार्थक प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।

सादर

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 20, 2015 at 4:44pm
बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, इस बेहद समसामयिक कृति के लिए। मैं व्यंग्य लेखन के नियम नहीं जानता, किन्तु विषय से आकर्षित हो कर जब यह व्यंग्य पढ़ा तो बहुत अच्छा लगा। क्या शीर्षक वास्तव में इतना बड़ा ही होना था ? क्या आरंभ से अंत तक व्यंग्य लेखन की शैली में बदलाव नहीं हुआ ? मेरा आशय यह है कि अालेख में उत्तरोत्तर गंभीरता बढ़ती चली गई,रोचकता घटती सी गई। लेकिन कुल मिलाकर आपने कमाल की प्रस्तुति दी है।

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