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लो अब तुम्हारी राह मे दीवार हम नहीं।

तुमने उठाई राह मे दीवार हम नहीं
फिर भी कह रहे हो गुनहगार हम नहीं।

उम्मीद कर रहा हूँ वफ़ा की उन्ही से मैं
कहते हैं जो किसी के तलबग़ार हम नहीं।

दिल मे नज़र मे तुम हो तो फिर किस तरह कहें
ऐ दोस्त अब भी करते तुम्हें प्यार हम नहीं।

दुनिया की ठोकरों ने गिरा कर ही रख दिया
लो अब तुम्हारी राह मे दीवार हम नहीं।

वो तो शगुन मे आज अंगूठी भी दे गये
हम लाख कह रहे थे की तैयार हम नहीं।

हम उसकी धुन में हैं तो ज़माने की क्या खबर
दुश्मन हैं अपनी घात में होशियार हम नहीं।

होंगें तुम्हारे हुस्न के मारे हुए बहुत
लेकिन तुम्हारे इश्क़ मे बीमार हम नहीं।

फिर कौन सी क़सम पे उन्हें एतबार हो
जब वो समझ रहें हैं कि ग़मख़्वार हम नहीं।

"रिज़वान" कुछ कहें न तुम्हारी ज़फ़ा पे हम
तुम क्या समझ रहें हो समझदार हम नहीं।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on January 25, 2016 at 10:59pm
शुक्रिया आ० आशुतोश मिश्र जी
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 30, 2015 at 4:26pm

वो तो शगुन मे आज अंगूठी भी दे गये
हम लाख कह रहे थे की तैयार हम नहीं।..बढ़िया है 

इस शानदार ग़ज़ल के लिए ह्रदय से बधाई सादर 

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