२१२२ १२२२ २१२२ १२१२
शहर में आ गया पर भूला नहीं गाँव दोस्तों
भूल सकता नहीं पीपल की मैं वो छाँव दोस्तों
खेल के नाम पे होती है सियासत ही बस यहाँ
चल नहीं सकता मेरा कोई यहाँ दाँव दोस्तों
सजदा करने में भी आती है शरम सबको आजकल
कोई बूढों के झुक के छूता नहीं पाँव दोस्तों
माँ ने जिस बाँध के सहरा है बसाया मेरा जहाँ
मैं उसी माँ की भी बैठा ही नहीं ठाँव दोस्तों
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
प्रिय कृष्णा जी ..आप सब के इस स्नेह से ही मन कुछ न कुछ लिखने को प्रेरित करता रहता है ..रचना पर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय डॉ रूपेंद्र जी ..रचना को आपका स्नेह मिला इससे मुझे रचनाधर्मिता की उर्जा मिली है ..आपको सादर धन्यवाद
आदरणीय श्याम जी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से धन्यवाद सादर
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ, बहर के बिषय में मुझे भी जानकारी नहीं है बिद्वत जनो की प्रतिक्रिया से ही जानकारी होगी ..उसकी प्रतीक्षा रहेगी सादर प्रणाम के साथ
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को " सादर |
आदरणीय आशुतोष भाई , अच्छी ग़ज़ल हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ! बहर मान्य है नहीं मै नही कह सकता , मै पहली बार इस बहर मे गज़ल पढ़ रहा हूँ , जानकार ही बता सकते हैं ।
महर्षि जी ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय डॉ कँवर जी ..रचना पर आपकी प्रतिक्रिया से मैं उत्साहित हूँ स्नेह यूं ही बनाये रखियेगा सादर धन्यवाद के साथ
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