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122 122 122 122
हिमालय बना था पड़ा ढल रहा हूँ
पिघलकर बना मैं नदी चल रहा हूँ।
उसाँसें धरा की सहेजे-सहेजे
बना मैं घटा कर अभी मल रहा हूँ।
बहा हूँ कभी मैं ढुलकता रहा था
अभी भी उसी आँख में पल रहा हूँ।
रही आग है जो जलाती- बुझाती
उसी आग में मैं अभी गल रहा हूँ।
जली थी कभी जो कहूँ नेह-बाती
अभी मैं वही लौ बना जल रहा हूँ।
पला था सपन जो घनेरे-घनेरे
रंगा मन उसीमें अभी चल रहा हूँ।
उषा की नवेली किरण तब हँसी थी
कभी बल रहा मैं कभी जल रहा हूँ।
"मौलिक व अप्रकाशित"@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on October 21, 2015 at 10:03pm
आपका आभार आशुतोष जी
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 2, 2015 at 11:05am

आदरणीय मनन जी इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Manan Kumar singh on September 30, 2015 at 11:17am
आभार आपका आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी
Comment by Manan Kumar singh on September 30, 2015 at 11:02am
आभार वर्मा जी

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