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बिक रही अब तो मुहब्बत दोस्तों (ग़ज़ल)

(2122  2122  212)
बढ़ रही ख़्वाहिश-ए-दौलत दोस्तों..
बिक रही अब तो मुहब्बत दोस्तों..
-
कब रुकेंगी जाने नदियां ख़ून की,
ख़त्म होगी कब ये नफ़रत दोस्तों..
-
न्याय की उम्मीद अब तुम छोड़ दो,
हैं बहस भर ही अदालत दोस्तों..
-
दिल में उनके है नहीं मेरी जगह,
क्यों हमें उनकी है चाहत दोस्तों..
-
टूटने का डर नहीं लगता हमें,
दिल लगाने की है आदत दोस्तों..
-
कद्र करता है कलम की 'जय' तभी,
देती है उसको ये इज़्ज़त दोस्तों..
(मौलिक व अप्रकाशित)
~
~
जयनित कुमार वर्मा
अररिया,बिहार

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 16, 2015 at 12:59pm
आमोद जी दोनों अशआर बाबह्र हैं ध्यान से तक्ती करके देखिये
Comment by amod shrivastav (bindouri) on September 16, 2015 at 10:30am
दिल में उन/के है नही मे/री जगह
2122/2212/212
Comment by amod shrivastav (bindouri) on September 16, 2015 at 10:23am
कब रुकेगी जाने नदियां खून की


सर बहर से बाहर है
Comment by Rahul Dangi Panchal on September 16, 2015 at 9:43am
सुन्दर रचना

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 15, 2015 at 10:18pm
आपने यहाँ हर्फ़े इज़ाफ़त को स्वतंत्र रूप से लिया है जबकि यहाँ ये 'ख्वाहिशे' की तरह पढ़ा जायेगा जिसका वज्न २११ या छूट के अनुसार २१२ भी लिया जा सकता है
Comment by जयनित कुमार मेहता on September 15, 2015 at 8:35pm

आदरणीय, मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि मतले का पहला मिसरा कैसे बेबह्र है..?

कृपया देखें,

बढ़/र/ही/ख्वा/हिश/ए'/दौ/लत/दो/स्/तों

2/1/2/2/2/1/2/2/2/1/2


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 15, 2015 at 7:23pm
आदरणीय जयनितजी पहले तो ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकार करें। दूसरे, मतले का पहला मिसरा बेबह्र हुआ जा रहा है फिर से विचार करेंकरें
सादर,

कृपया ध्यान दे...

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