आज़ादी के कई सालों बाद
उसकी तलाश ज़रूरी लगती है .
प्रजातन्त्र की भौतिकवादी
प्रवित्रियो में लिप्त आज़ादी अधूरी लगती है.
आज़ादी की तलाश उन बcचो के सपनों में है
जिनका बचपन कलम-किताब छोड़ होटलों में बिकता है
आज़ादी की तलाश किसानों के खेतों में है
जिनके आखों में पानी और गले मे मौत है
आज़ादी की तलाश वेरोज़गार युवीमन में है
जहाँ आखरी डिग्री की आस है
जिससे भूखा पेट भरा जा सके
आज़ादी की तलाश फूटपाथ पर सोए लोगों के
उनीदे सपनों में है जहाँ बेरहमी से वो कुचल दिए जाते है
आज़ादी की तलाश उस आखरी आदमी के आखों मे है
.जो मौन है संवेदनाएँ मर गयी हैं
रोटी ही जिसका आखरी लक्ष्य है
खुद नही जानता वो कौन है.....
अप्रकाशित/ मौलिक
डॉ दिलीप तिवारी
Comment
dhanyabad sabhi ko
बढ़िया प्रस्तुति हुई है हार्दिक बधाई आदरणीय दिलीप जी
दिमाग़ को झंकझोरती रचना , बधाई इस प्रस्तुति के लिए आपको आ० दिलीप जी
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