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गुनगुनाते हुए ज़िन्दगी की ग़ज़ल

२१२  २१२   २१२   २१२

गुनगुनाते हुए ज़िन्दगी की  ग़ज़ल

मैं चला जा रहा राह अपनी बदल

हुस्न को देख दिल जो गया था मचल

आज उसको भी देखा है मैंने अटल

वो  घने गेसू गुल से हसीं लव कहाँ

है मुकद्दर खिजाँ तो खिजाँ से बहल

उनके कूचे में मेरा जनाजा खड़ा

सोचता अब भी शायद वो जाए पिघल

शक्ल में गुल की ये मेरे अरमान हैं

नाजनी इस तरह तू न गुल को मसल

चैन मुझको मिला कब्र में लेटकर

शोरगुल भी नहीं न किसी का खलल

घुट रहा दम मेरा शहर में आजकल

गाँव के हाल देखे तो आँखें सजल

मूल्य सब बेंचकर जो तिजोरी भरे

उसको ही मानती आज दुनिया सफल

हुस्न को देख आँखें ये भौचक हुयी

मन मचलने लगा तो गया दिल फिसल 

अब न तहजीब है न अदब कायदा

है नयी सभ्यता है नयी अब फसल

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 10, 2015 at 11:43am

आ. भाई  आशुतोष  जी , बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई   है भाई समर जी के   सुझाव  से शेर निखार गया है  हार्दिक बधाई स्वीकारें .

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 9, 2015 at 2:02pm

आदरणीय समर कबीर जी ..आपकी उत्साहवर्धक और मार्गदर्शन करती इस प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद .आपके सझाव अमूल्य होते हैं आपका नजरिया बेहद शानदार है मैं इस शेर को आपके मार्गदर्शन के अनुरूप बदल लूँगा ..आप का स्नेह और मार्गदशन सतत यूं ही मिलता रहे इसी कामना के साथ सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Samar kabeer on August 8, 2015 at 11:19pm
जनाब डॉ आशुतोष मिश्रा जी,आदाब,बहुत ही अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं,एक शैर की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा :-

"उनके कूचे में मेरा जनाजा खड़ा
सोचता अब भी शायद वो जाए पिघल"

वैसे तो इस शैर में कोई ऐब नहीं है लेकिन बयान बहुत कमज़ोर है ,इस तरह देखिये कैसा लगता है :-

"उसके कूचे में मेरा जनाज़ा रखो
देख कर इसको शायद वो जाए पिघल"

बाक़ी शुभ-शुभ ।

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