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हो गया सागर लबालब अब उफनना चाहिए, (गजल)

2122 2122 2122 212


हो गया सागर लबालब अब उफनना चाहिए,
चल रहा मंथन बहुत कुछ तो निकलना चाहिए।


आग यह कबसे दबायी है अभी अंतर सुनो,
कब तलक सुलगे उसे अब तो धधकना चाहिये।


बेइमां अब साहिबां सब क्यूँ हमारे हो गये?,
आज एक उनमें कहीं वाजिब निकलना चाहिये।


है सड़क से राह ले जाती सियासत तक अभी,
अब तुझे भी आप ही घर से निकलना चाहिये।


ले गये सब मोड़ते नदियाँ कहाँ ये बावरे?
इक नदी का रुख अभी भी तो बदलना चाहिये।


क्षीण कितनी है नदी की धार देखा कीजिये,
वक्त है अब तो हमें थोड़ा सँभलना चाहिये।


मेड़ अबतक तो बनाते हैं रहे सब ताज़दाँ,
आ चलें अंधी गुफा से अब निकलना चाहिये।

.
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on July 28, 2015 at 8:45am
आदरणीया राजेश कुमारीजी आभार आपका

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 27, 2015 at 9:55pm

मनन कुमार जी ,बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है दिल से बधाई लीजिये 

Comment by Manan Kumar singh on July 27, 2015 at 8:44pm
आदरणीय राहुल जी,नरेंद्र जी,गिरिराज भाई एवं मिथिलेश जी आभार आपके

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 4:06pm

इस प्रस्तुति पर बधाई...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 12:41pm

आदरणीय मनन भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by narendrasinh chauhan on July 27, 2015 at 11:01am

बहुत सुन्दर

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 27, 2015 at 8:15am
बहुत सुन्दर
Comment by Manan Kumar singh on July 26, 2015 at 7:35pm
समर भाई ,आपकी सलाह वाजिब है साहिबां मुंतखिब वाला मिसरा थोड़ा खटकता है,मैं इसे ठीक करता हूँ;मतलब था कि हमने अपने नुमाइंदे चुने।दूसरे मिसरा में भी सड़क से है राह के बदले है सड़क से राह करता हूँ,शुक्रिया।
Comment by Manan Kumar singh on July 26, 2015 at 7:28pm
गजल पर दाद के लिए समर भाई,मनोज जी,सुशील जी एवं आदरणीय कान्ता जी का आभार!
Comment by kanta roy on July 26, 2015 at 2:30pm
वाह !वाह !!!!! क्या बात है !!! सागर का लबलबा कर उफनने की बात कही है आपने .....कुछ निकले या ना निकले . मंथन के चलने का एक सकूँ हुआ है ...... इस शानदार गजल के लिए दाद कबूल फरमाईये आप आदरणीय मनन कुमार जी ।

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