२१२२ २१२२ २१२२ २१२२
तुमको पत्थर में नहीं मूरत दिखाई दे रही है
नदियों की कल कल न बांधों में सुनायी दे रही है
कोई भी इल्जाम मैंने तो लगाया था नहीं फिर
वो हंसी गुल जाने क्यूँ इतनी सफाई दे रही है
चीख बस बच्चों कि ही तुमको सुनायी देती है क्यूँ
ये न देखा लाडले को माँ दवाई दे रही है
एक रोटी के लिए तरसा दिया उस माँ को तुमने
जो गृहस्ती ज़िंदगी भर की बनायी दे रही है
काम दुनिया में अकेली माँ ही ये कर सकती है बस
रोटी भूखे बच्चे को खुद को बचाई दे रही है
आबरू उस माँ की लूटें आज उसके लाडले ही
जिसकी वो ममता जमाने से दुहाई दे रही है
उम्र भर का साथ हमने दोस्तों जिससे था माँगा
वो हंसी गुल ज़िंदगी भर की जुदाई दे रही है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
काम दुनिया में अकेली माँ ही ये कर सकती है बस
रोटी भूखे बच्चे को खुद को बचाई दे रही है..
खूबसूरत भाव और एक सत्य लिए अच्छी गजल के लिए दाद कुबूल करें
भ्रमर ५
आदरणीय आशुतोष जी शानदार ग़ज़ल हुई है दिल से दाद हाज़िर है
एक मिसरे पर छोटा सा सुझाव, यदि उचित लगे तो-
उम्र भर का साथ हमने दोस्तों जिससे था माँगा
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..मेरी हर रचना को आपका स्नेह और मार्गदर्शन मिलता है ये मेरे लिए बेशकीमती है ..रचना पर आपकी उत्साहित करने वाली प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय कृष्णा जी ..रचना आपको पसंद आयी यह मेरे लिए बेहद खुसी की बात है सादर
आदरणीय वीनस जी ...रचना पर आपकी प्रतिक्रिया से मेरे उत्साह काफी बढ़ा है ..मैं जो कुछ भी लिख पा रहा हूँ उसमे आप सबका मार्गदर्शन और स्नेह शामिल है ..मार्गदर्शन बस यूं ही मिलता रहे इसी कामना के साथ सादर
आदरणीय आशुतोष भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ॥
काम दुनिया में अकेली माँ ही ये कर सकती है बस
रोटी भूखे बच्चे को खुद को बचाई दे रही है वाह वाह!
बहुत ही सुन्दर गज़ल हुयी है आ० आशुतोष सर,दिली दाद और मुबारकबाद कबूल करें!
वाह बहुत खूब ...
आदरणीय समर कबीर जी आप का मार्गदर्शन और स्नेह यूं ही मिलता रहेगा तो लेखन को नयी उर्जा मिलती रहेगी सादर
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