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घाव की मौजूदगी में - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122   2122    2122   2122

******************************
मन  किसी  अंधे  कुए  में  नित  वफ़ा  को  ढूँढता है
जबकि तन  लेकर हवस को रात दिन बस भागता है

*****
तार  कर  इज्जत   सितारे   घूमते  बेखौफ  होकर
कह रहे सब खुल के वचलना चाँद की भोली खता है

*****
जिंदगी  भर  यूँ  अदावत  खूब  की   तूने  सभी  से
मौत  के  पल  मिन्नतें  कर  राह  में क्यों रोकता है

****
जाँच  को  फिर  से  बिठाओ आँसुओं कोई कमीशन
घाव   की   मौजूदगी    में    दर्द   कैसे  लापता  है

*****
आप ने  पूछा  कि  पलकें किस लिए  गीली  हमेंशा
गम रहे  हरदम  सलामत  अश्क  इसको  जागता है

*****
मिल  ही  जाते  हैं  अजाने   लोग  अक्सर  दोस्तों  से
कब मिला पर वो ‘मुसाफिर’ स्वप्न जिसको खोजता है

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2015 at 12:10pm

आ0 भाई विनोद जी और भाई श्याम मठपाल जी उत्साहवर्धन के लिए आभार स्नेह बनाए रखें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2015 at 12:07pm


आ0 भाई सोमेश जी और भाई विजय जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2015 at 12:06pm

आ0 भाई मिथिलेश जी गजल को अत्यधिक मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 1, 2015 at 12:18pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल बहुत सुन्दर कही है , दिली बधाइयाँ । मतले मे इता दोष की संभावना से आ. बागी जी से मै भी सहमत हूँ ।

Comment by ram shiromani pathak on February 1, 2015 at 10:26am
आदरणीय लक्ष्मण भाई बहुत सुन्दर ग़ज़ल हार्दिक बधाई आपको।।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 1, 2015 at 9:17am

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी रचना पर मेहनत दिखाई दे रही है लेकिन लगता है कहीं कुछ कमी है। मैं आदरणीय गणेशजी की बात से सहमत हूँ।

Comment by vijay on January 30, 2015 at 11:04pm
बेहतर ग़ज़ल बाकि गुनीजनो ने अपने विचार रक्खे है उनका निर्वहन करे
Comment by somesh kumar on January 30, 2015 at 10:59pm

मन  किसी  अंधे  कुए  में  नित  वफ़ा  को  ढूँढता है
जबकि तन  लेकर हवस को रात दिन बस भागता है

आज के प्रेम में क्न्फुजियाई पीढ़ी का  सपाट सत्य 

सारी गज; की कमी-खूबियों पर गुणीजन पहले ही बहुत कुछ कह चुके हैं |हमारी तरफ से बधाई |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 30, 2015 at 1:11am

जाँच  को  फिर  से  बिठाओ आँसुओं कोई कमीशन
घाव   की   मौजूदगी    में    दर्द   कैसे  लापता  है

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी कालजयी शेर निकाल ले गए.... बरबस ही याद आ जाने वाला शेर या कहे भूला न सकने वाला शेर 

इस शेर पे दिल से दाद कुबूल करे. बाकि आदरणीय बागी सर कह चुके है. ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 29, 2015 at 8:52pm

//मन  किसी  अंधे  कुए  में  नित  वफ़ा  को  ढूँढता है
जबकि तन  लेकर हवस को रात दिन बस भागता है//

वाह वाह आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, मतला का कहन बरबस ध्यान खींचता है, किन्तु प्रथम दृष्टया ईता दोष भी लग रहा है.

//कह रहे सब खुल के वचलना चाँद की भोली खता है//

तनिक इस मिसरा को देख लीजियेगा यह 'वचलना' क्या है ?

//जाँच  को  फिर  से  बिठाओ आँसुओं कोई कमीशन
घाव   की   मौजूदगी    में    दर्द   कैसे  लापता  है//

इस शे'र के लिए विशेष दाद देता हूँ भाई जी.

//गम रहे  हरदम  सलामत  अश्क  इसको  जागता है//

इस मिसरा में रेखांकित भाग का कहन समझ नहीं सका.

मकता भी काफ़ी जँचा, बहुत बहुत बधाई.

कृपया ध्यान दे...

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