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 2122 1212 22

झूठ ही बन गया है आँचल क्या

धूप लगने लगी है अफ़्ज़ल क्या                         (अफ़्ज़ल –भला)

 

अक्ल की बंद खिड़कियाँ खोलो

टाट लगने लगा है मखमल क्या

 

जो मुहब्बत दिखा रहे हो आज

दिल में कायम रहेगा ये कल क्या

 

किस्से कुछ और थे हकीकत और

ये रवायात बदलीं पल-पल क्या

 

छटपटाहट सी क्यूँ है चेहरे पर

मच उठी दिल में कोई हलचल क्या

 

फर्ज़ अपना भुला दिया या फिर

आदतन हो गये हो निर्बल क्या

 

( मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by gumnaam pithoragarhi on January 24, 2015 at 9:59am

वाह बहुत खूब है सर जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 24, 2015 at 2:37am

आदरणीय शिज्जु भाई जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई।
बेहतरीन मतला। गिरह का शेर उम्दा। आखिरी शेर तो कमाल है।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 24, 2015 at 2:37am

आदरणीय शिज्जु भाई जी एक ही ग़ज़ल दो बार पोस्ट हो गई है ...इसलिए यहाँ भी वही कमेन्ट पोस्ट कर रहा हूँ   

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 23, 2015 at 10:46pm
वाह, सभी शेर बहुत सुन्दर, बधाई ,आदरणीय शिज्जु शकूर जी, सादर।

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