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कब तलक दीपक जलेगा ये मुझे मालूम है

२१२२   २१२२   २१२२   २१२

कब तलक दीपक जलेगा ये मुझे मालूम है

तप रहा सूरज ढलेगा ये मुझे मालूम है

 

कौन ऊँचाई पे कितनी ये नहीं मुझको पता

पर जमी में ही मिलेगा ये मुझे मालूम है

 

कितनी दौलत वो कमाता आप उससे पूँछिये

साथ उसके क्या चलेगा ये मुझे मालूम है

 

अपनी खुशियों के लिए जो आज  कांटे बो रहे

कल उन्हें भी ये खलेगा ये मुझे मालूम है

 

वो बबूलों को लगाते आम की उम्मीद में

क्या हकीकत में फलेगा ये मुझे मालूम है

 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 29, 2014 at 1:42pm

आदरणीय शिज्जू जी .. आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद साद र 

Comment by Hari Prakash Dubey on December 28, 2014 at 8:15pm

आदरणीय डॉ आशुतोष जी ............कौन ऊँचाई पे कितनी ये नहीं मुझको पता

पर जमी में ही मिलेगा ये मुझे मालूम है.......बहुत खूब ,हार्दिक बधाई आपको !

Comment by ram shiromani pathak on December 28, 2014 at 3:08pm
बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय।।हार्दिक बधाई आपको।।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2014 at 8:22pm

आदरणीय डॉ आशुतोष जी बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने .....बधाई स्वीकार करें।

ये दोनों अशआर उम्दा है लेकिन एक ही भाव के दो अशआर एक ही ग़ज़ल में है .. उचित लगे तो इनका क्रम बदल दे 

अपनी खुशियों के लिए जो आज  कांटे बो रहे

कल उन्हें भी ये खलेगा ये मुझे मालूम है

 

वो बबूलों को लगाते आम की उम्मीद में

क्या हकीकत में फलेगा ये मुझे मालूम है

सादर 

Comment by somesh kumar on December 27, 2014 at 8:14pm

कौन ऊँचाई पे कितनी ये नहीं मुझको पता

पर जमी में ही मिलेगा ये मुझे मालूम है

बहुत साफ़ और सच्ची बयानी है इस शे;र में वैसे पूरी गज़ल ही आत्मचिंतन को प्रेरित करती है |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 27, 2014 at 6:43pm

बहुत खूब आदरणीय डॉ आशुतोष जी रदीफ़ो काफिया खूब निभाया है आपने बधाई स्वीकार करें।

कृपया ध्यान दे...

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