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चिंता (लघुकथा)

"सुनो माँ, रवि का फोन आया था। कल मुझे लेने आ रहा है और इस बार कुछ ढंग के कपड़े ला देना। वहाँ मेरी बहुत इंसेल्ट होती है।"
'पिछली बार जिससे पैसे उधार लिए थे वो कई बार वापस माँगने आ चुकी थी। अब किससे उधार माँगेगी?'- सोचकर माँ चिंता में डूब गई।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by विनोद खनगवाल on November 27, 2014 at 9:41pm
आदरणीय योगराज जी धन्यवाद।
Comment by विनोद खनगवाल on November 27, 2014 at 9:40pm
आदरणीय विजय जी धन्यवाद

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 27, 2014 at 11:15am

लघुकथा कहने का अच्छा रयास है, बधाई स्वीकारें।

Comment by vijay nikore on November 24, 2014 at 9:00am

सुन्दर, बहुत सुन्दर लघु कथा। बधाई।

Comment by विनोद खनगवाल on November 23, 2014 at 10:10am

rachna ko apna kimti samya dene ke liya aap sabhi ka dhanywad

Comment by vandana on November 22, 2014 at 4:54am

मार्मिक ....!!!

Comment by Hari Prakash Dubey on November 20, 2014 at 5:10pm

 अभावों का सुन्दर चित्रण बहुत ही कम शब्दों में कर दिया आपने ,विनोद जी आपको हार्दिक बधाई

Comment by Shyam Narain Verma on November 20, 2014 at 1:08pm

सुंदर लघु कथा के लिए बधाई 

Comment by somesh kumar on November 19, 2014 at 7:35pm

सुंदर लघुकथा 

माँ खामोश है और बेटी जान बुझकर अन्जानी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 19, 2014 at 5:16pm

एक गरीब मजबूर माँ जो बेटी को अपनी परेशानी बताकर दुखी नहीं करना चाहती एक और बेटी जो अपनी माँ की मजबूरी समझती ही  नहीं ...बहुत बढ़िया लघु कथा और बहुत सच ...

हार्दिक बधाई आपको .

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