रविवार का दिन था। सज्जनदासजी के घर पड़ौसी प्रकाश चौधरी आ कर चाय का आनंद ले रहे थे।
बातों बातों में प्रकाशजी ने कहा- ‘क्या जमाना आ गया, देखिए न अपने पड़ौसी, वे परिमलजी, कोर्ट में रीडर थे, उनके बेटे आशुतोष की पत्नी को मरे अभी साल भर ही हुआ है, मैंने सुना है, उसने दूसरी शादी कर ली है। बेटा है, बहू है और एक साल की पोती भी। अट्ठावन साल की उम्र में क्या सूझी दुबारा शादी करने की। पत्नी नौकरी में थी, इसलिए पेंशन भी मिल रही थी। अब शादी करने से पेंशन बंद हो जाएगी। यह तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना हुआ।‘
‘हाँ, सुना तो मैंने भी है। पर बात कुछ अलग है, और है भी कायदे की।‘
‘क्या है, इस उम्र में शादी करने की कोई तुक है।‘ प्रकाशजी ने अतिउत्साह से कहा।
’अरे, प्रकाश जी, आशुतोष बहुत समझदार हैं, मेरी उससे बातचीत हुई थी। हम साथ ही तो नौकरी पर लगे थे। मैं इसी महीने रिटायर हुआ हूँ और आशुतोष अगले साल रिटायर हो रहा है। वह बता रहा था बेटा आवारा है, कुछ करता-धरता नहीं हैं, लाखों गँवा दिये, मुकदमे चल रहे हैं। आगे भी सम्हल पाएगा, लगता नहीं है। इसलिए उसने सोच समझ कर बेटे बहू से पूछ कर फैसला किया है। जो औरत उनके साथ रह रही है, उससे उसने अभी शादी नहीं की है। समाज और जाति बिरादरी की ही है, अभी ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के अंतर्गत कानूनी कार्यवाही कर समाज के बीच में बाकायदा वरमाला पहना कर, और रिटायरमेंट से पहले विवाह का वादा करके ले कर आया है आशुतोष।‘
’क्या कह रहे हैं, सज्जनजी, ऐसा है क्या?’
’हाँ, अभी वह घर के वातावरण्ा में ढल जाएगी। बेटे बहू की सामंजस्यता भी बैठ जाएगी। आशुतोष की पहली पत्नी परिणीताजी की पैंशन भी मिलती रहेगी। रिटायरमेंट के छ:-सात महीने पहले शादी घोषित कर देंगे और सरकारी खाते में बतौर पत्नी दर्शाने से वह भी भविष्य में पेंशन की हकदार हो जाएगी, ताकि लंबे समय तक परिवार को भरण पोषण की चिंता नहीं रहेगी।
‘वाह, यह तो बहुत बुद्धिमानी की आशुतोष ने।‘
‘घर में जवान बेटे बहू हैं, बच्चे छोटे हैं, इसलिए एक जिम्मेदार औरत का होना जरूरी भी है, शारीरिक सम्बंध ही तो सबकुछ नहीं, घर की और भी कई जिम्मेदारियाँ है, बेटा आवारा है, घर में अकेली बहू, छोटी बच्ची, शायद यही सोच कर आशुतोष ने यह निर्णय लिया होगा। नौकरी से थके हारे घर आने पर अपने मन की बात कहने सुनने वाला भी तो होना चाहिए न।‘ सज्जन जी बोले।
उन्हेांने बात ऐसे ढंग से कही कि प्रकाश जी हँसे बिना नहीं रह सके। चाय की चुसकी के साथ दोनों ठहाके मार कर हँस रहे थे।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
सुन्दर विषय को उठाया है.
सादर.
बहुत ही रोचक और सामयिक प्लाट है इस कहानी का...पर शिल्पगत सुझावों के लिए जानकारों के कहे से मेरी भी सहमति है
प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें आ० डॉ० गोपाल कृष्ण भट्ट जी
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... सादर बधाई |
गंभीर विषय पर अच्छी कलम आज़माई की है, लेकिन इसको लघुकथा हरगिज़ नहीं कहा जा सकता आ० डॉ आकुल जी। थोड़ी सी मेहनत और करें तो अच्छी खासी कहानी अवश्य बन सकती है।
यूँ तो मैं स्वयं ,इस मंच के गुरुओं से लघुकथा सीख रहा हूँ पर हाँ ,आप की कहानी में स्पष्टता की कमी लग रही है ,कोशिश करें ,कहानी पोस्ट करने से पहले उसे 2-3 बार पढ़े और कमी लगने पर सुधार भी करें ,कोशिश और विषय दोनों गम्भीर हैं |कोशिश को साधुवाद
साधुवाद
बात तो सही की आपने आदरणीय//हार्दिक बधाई आपको
कहानी उपन्यास शैली में हो गयी है, लघुकथा में मिलने वाली तीक्ष्णता लुप्त है, एक गंभीर विषय पर लेखन हेतु बधाई आदरणीय "अकुल" साहब .
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