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दीप जले हैं जब-जब

छँट गये अँधेरे।

अवसर की चौखट पर

खुशियाँ सदा मनाएँ

बुझी हुई आशाओं के

नवदीप जलाएँ

हाथ धरे बैठे

ढहते हैं स्वर्ण घरौंदे

सौरभ के पदचिह्नों पर

जीवन महकाएँ

क़दम बढ़े हैं जब-जब

छँट गये अँधेरे।

कलघोषों के बीच

आहुति देते जाएँ

यज्ञ रहे प्रज्‍ज्‍वलित

सिद्ध हों सभी ॠचाएँ

पथभ्रष्टों की प्रगति के

प्रतिमान छलावे

कर्मक्षेत्र में जगती रहतीं

सभी दिशाएँ

अडिग रहे हैं जब-जब

छँट गये अँधेरे।

आतिशबाजी से मन के

मनुहार जताएँ

घर-घर देहरी आँगन

दीपाधार सजाएँ

जहाँ अँधेरे भाग्य बुझाते

रहते सपने

फुलझड़ियों से गलियों में

गुलज़ार सजाएँ

हाथ मिले हैं जब-जब

छँट गए अँधेरे।

मन मंजूषा में गोखरु के

मनके नहीं पिरोएँ

गढ़ के कंगूरों में अब

संगीनें नहीं पिरोएँ

विश्वांसों के पतझड़ में

शिकवा क्या फूलों से

तुलसी माला में गुंजा के

मनके नहीं पिरोएँ

संकल्प लिए हैं जब-जब

छँट गये अँधेरे।

सभी विद्वज्‍जनों को प्रकाशपर्व की शुभकामनायें

'मौलिक एवं अप्रकाशित'

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Comment

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Comment by Aditya Kumar on October 22, 2014 at 7:52pm

aapko bhi bahut bahut subhkamnayen

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 22, 2014 at 12:08pm

विश्वांसों के पतझड़ में

शिकवा क्या फूलों से

तुलसी माला में गुंजा के

मनके नहीं पिरोएँ

संकल्प लिए हैं जब-जब

छँट गये अँधेरे।

बुझी हुई आशाओं के

नवदीप जलाएँ--------बहुत सुंदर और सार्थक रचना हुई है | हार्दिक बधाई श्री भट्ट साहब | दीपोत्सव की मंगल कामनाएं 

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