गैर कोई है छिपा सा देखता हूँ
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2122 2122 2122
जब अंधेरों में उजाला देखता हूँ
सच में रोशन भी हुआ क्या, देखता हूँ
मैंने कल काँटा चुभा तो, फूल माना
कुछ असर उसपे हुआ क्या, देखता हूँ
लोग इंसानों की भाषा बोल लें पर
गैर कोई है छिपा सा देखता हूँ
अश्क़ कोई देख लेता है निहानी
तब ख़ुदाई, मैं ख़ुदाया देखता हूँ
ख्वाब सारे थे सुनहरे मर चुके अब
कश्ती को साहिल डुबोया, देखता हूँ
नालियों में कीड़ों सा जब मैं पला तो
गालियों सी ख़ुद की भाषा देखता हूँ
यूँ ही पत्थर इक चला के शांत जल में
खलबली को मैं मज़ा सा देखता हूँ
मुझको जीने की दुआएं और दो मत
मैं इन्हें तो , बद दुआ सा देखता हूँ
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
बहुत उत्कृष्ट ग़ज़ल आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब ..सभी शेर लाजबाब ..
मैंने कल काँटा चुभा तो, फूल माना
कुछ असर उसपे हुआ क्या, देखता हूँ
लोग इंसानों की भाषा बोल लें पर
गैर कोई है छिपा सा देखता हूँ...शानदार ग़ज़ल हेतु बधाई.आपको .
मैंने कल काँटा चुभा तो, फूल माना
कुछ असर उसपे हुआ क्या, देखता हूँ------क्या बात है
लोग इंसानों की भाषा बोल लें पर
गैर कोई है छिपा सा देखता हूँ----कोई भरोसा नहीं आजकल
बहुत सुन्दर ग़ज़ल ,बधाई आपको आ० गिरिराज जी
वाह वाह बहुत सुन्दर गजल , हार्दिक बधाई भाईसाहब
यूँ ही पत्थर इक चला के शांत जल में
खलबली को मैं मज़ा सा देखता हूँ
वाह बहुत शानदार आदरणीय बहत २ बधाई
//यूँ ही पत्थर इक चला के शांत जल में
खलबली को मैं मज़ा सा देखता हूँ //
आय हाय, ऐसा लगता है कि इसी शेर के लिए मुकम्मल ग़ज़ल हुई है, बहुत ही प्यार शेर, बहुत बहुत बधाई आदरणीय भंडारी साहब।
बधाई अच्छी गजल के लिये
यूँ ही पत्थर इक चला के शांत जल में
खलबली को मैं मज़ा सा देखता हूँ .........बहुत सुंदर, इस शेर पर विशेष बधाई स्वीकारें , आदरणीय गिरिराज जी
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