For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

एक तरही ग़ज़ल - “ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “ ( गिरिराज भंडारी )

“ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “

   22   22   22   22   22   22   22  2

लगे कमाने जब भी बच्चे बना लिए घर बार नए

मगर बुढ़ापे को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?

 

आयातित हो गयी सभ्यता पच्छिम, उत्तर, दच्छिन की

बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए

 

हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है

परम्पराएं आज पुरानी खोज रहीं स्वीकार नए

 

पत्ते - डाली ही  काटे  हैं ,  जड़ें वहीं की  वहीं रहीं

इसी लिए तो रोज़ पनपते जाते हैं मक्कार  नए

 

थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा

इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए  

 

ता कि नई सुबह में पायें सजी हुई हम किरणों को

‘’ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए ’’

**************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित  (  संशोधित  )

Views: 901

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by ram shiromani pathak on September 10, 2014 at 8:36pm
वाह वाह आदरणीय गिरिराज जी बहुत ज़ोरदार ग़ज़ल ।।हार्दिक बधाई आपको।।सादर
Comment by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 10, 2014 at 6:23pm

पत्ते - डाली ही  काटे  हैं ,  जड़ें वहीं की  वहीं रहीं

इसी लिए तो रोज़ पनपते जाते हैं मक्कार  नए।

कुकुरमुत्‍तों की तरह पनपते अनीति के पौधे, बाहर दिखें तो काटा जा सकता है उन्‍हें, अंदर उग रहे हों तो कितना बेबस हो जाता है इंसान द्वारा उसे काटना। सुंदर ग़ज़ल । मात्राओं के साथ सुंदर ताल मेल। क्‍या ग़ज़ल में पच्‍छीम, दच्छिन स्‍वीकार्य है? 'मेरी' को 'मिरी' तो पढ़ा है, क्‍या ऐसा इन शब्‍दों के साथ भी ग्राह्य है? 

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 10, 2014 at 12:26pm
" आयातित हो गयी सभ्यता पच्छीम, उत्तर, दच्छिन की
बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए "
बहुत सुन्दर विचार प्रस्तुति आदरणीय गिरिराजभण्डारी जी।
पर एक बात प्रसंगतः कहूँ , स्वयं अमेरिका में सारे त्यौहार मात्र " हॉलिडे " , हैपी हॉलिडे कह कर विश किये जाते हैं, हम क्यों भटके हैं , यह हम ही नहीं जानते हैं।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 10, 2014 at 10:45am

आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..एक सार्थक सन्देश देती चिंतन के लिए प्रेरित करती इस शानदार ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई //या शेर मुझे बेहद भाया ..इसके लिए अलग से बधाई 

हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है

आज रिवायत सभी पुरानी , खोज रहीं स्वीकार नए...................सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 10, 2014 at 9:47am

पत्ते - डाली ही  काटे  हैं ,  जड़ें वहीं की  वहीं रहीं

इसी लिए तो रोज़ पनपते जाते हैं मक्कार  नए

 

थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा

इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए  ----------- इन दोनों शेरों के लिए विशेष बधाईयाँ बहुत शानदार ग़ज़ल हुई आ० गिरिराज जी. 

Comment by harivallabh sharma on September 10, 2014 at 12:29am

बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय ..

थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा

इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए  ....आज के परिवेश को समेटे अशआर ...बधाई आपको.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 9, 2014 at 8:25pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई  , आपका दिली आभार सराहना के लिए |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 9, 2014 at 8:24pm

आदरणीय संत लाल भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका दिल से आभारी हूँ  ||


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 9, 2014 at 8:23pm

आदरणीय नरेंद्र भाई , आपका बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 9, 2014 at 8:23pm

आदरणीय शकील भाई , हौसला अफजाई का तहे दिल से शुक्रिया |

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

सालिक गणवीर shared Admin's page on Facebook
10 minutes ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी's blog post was featured

एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]

एक धरती जो सदा से जल रही है   ********************************२१२२    २१२२     २१२२ एक इच्छा मन के…See More
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी posted a blog post

एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]

एक धरती जो सदा से जल रही है   ********************************२१२२    २१२२     २१२२ एक इच्छा मन के…See More
Tuesday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . .तकदीर

दोहा सप्तक. . . . . तकदीर  होती है हर हाथ में, किस्मत भरी लकीर ।उसकी रहमत के बिना, कब बदले तकदीर…See More
Tuesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 166

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ छियासठवाँ आयोजन है।.…See More
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आदरणीय  चेतन प्रकाश भाई  आपका हार्दिक आभार "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आदरणीय बड़े भाई  आपका हार्दिक आभार "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आभार आपका  आदरणीय  सुशील भाई "
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आ. प्रतिभा बहन, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service