“ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “
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लगे कमाने जब भी बच्चे बना लिए घर बार नए
मगर बुढ़ापे को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?
आयातित हो गयी सभ्यता पच्छिम, उत्तर, दच्छिन की
बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए
हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है
परम्पराएं आज पुरानी खोज रहीं स्वीकार नए
पत्ते - डाली ही काटे हैं , जड़ें वहीं की वहीं रहीं
इसी लिए तो रोज़ पनपते जाते हैं मक्कार नए
थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा
इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए
ता कि नई सुबह में पायें सजी हुई हम किरणों को
‘’ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए ’’
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )Comment
पत्ते - डाली ही काटे हैं , जड़ें वहीं की वहीं रहीं
इसी लिए तो रोज़ पनपते जाते हैं मक्कार नए।
कुकुरमुत्तों की तरह पनपते अनीति के पौधे, बाहर दिखें तो काटा जा सकता है उन्हें, अंदर उग रहे हों तो कितना बेबस हो जाता है इंसान द्वारा उसे काटना। सुंदर ग़ज़ल । मात्राओं के साथ सुंदर ताल मेल। क्या ग़ज़ल में पच्छीम, दच्छिन स्वीकार्य है? 'मेरी' को 'मिरी' तो पढ़ा है, क्या ऐसा इन शब्दों के साथ भी ग्राह्य है?
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..एक सार्थक सन्देश देती चिंतन के लिए प्रेरित करती इस शानदार ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई //या शेर मुझे बेहद भाया ..इसके लिए अलग से बधाई
हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है
आज रिवायत सभी पुरानी , खोज रहीं स्वीकार नए...................सादर
पत्ते - डाली ही काटे हैं , जड़ें वहीं की वहीं रहीं
इसी लिए तो रोज़ पनपते जाते हैं मक्कार नए
थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा
इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए ----------- इन दोनों शेरों के लिए विशेष बधाईयाँ बहुत शानदार ग़ज़ल हुई आ० गिरिराज जी.
बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय ..
थोड़ा अहम तुम्हारा टूटे , थोड़ा सा पिघले मेरा
इस टूटे रिश्ते में खोजें आ फिर से अधिकार नए ....आज के परिवेश को समेटे अशआर ...बधाई आपको.
आदरणीय जितेन्द्र भाई , आपका दिली आभार सराहना के लिए |
आदरणीय संत लाल भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका दिल से आभारी हूँ ||
आदरणीय नरेंद्र भाई , आपका बहुत शुक्रिया |
आदरणीय शकील भाई , हौसला अफजाई का तहे दिल से शुक्रिया |
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