छै दोहे – गिरिराज भंडारी
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भाव शिल्प में आ सके , बस उतना ही बोल
मन का दरवाज़ा अभी , मत पूरा तू खोल
यदि कोशिश निर्बाध हो, सध जाता है छंद
घबरा मत , शर्मा नहीं, गलती से मति मंद
गेय बनाना है अगर , छंद , कलों को जान
और रचेगा छंद जब , कल का रखना मान
शिल्प ज्ञान को पूर्ण कर , याद रहे गुरु पाठ
इंसा होके काम तू , मत करना ज्यों काठ
चाहे बातें हों कठिन , रखना भाषा आम
समझें ना पाठक अगर , सब कुछ है बेकाम
जब भी कहना बात कुछ , तार्किकता हो खूब
लेकिन बातें कह वही , तू जिससे मंसूब
मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीया अन्नपूर्णा जी , आपका हार्दिक आभार |
आ. सौरभ भाई , आपका बहुत बहुत शुक्रिया , सराहना के लिए और सलाह के लिए , अभी संशोधित कर रहा हूँ |
आ. राम शिरोमणि भाई , आपका बहुत शुक्रिया
आदरणीय बड़े भाई ,गोपाल जी आपका आभार , गलतियाँ बताने के लिए , अभी संशोधन कर रहा हूँ |
आदरणीया वन्दना जी , आपका बहुत आभार
सुंदर दोहे , आ0 गिरिराज जी ,
आदरणीय गिरिराजभाईजी, आपने तो छन्द शास्त्र के मूलभूत विधान को ही शब्दबद्ध कर दिया है ! बहुत खूब आदरणीय !
वैसे दोहा छन्द के शिल्पगत दोषों से आप बच सकते थे. आदरणीय गोपाल नारायनजी ने सारी बातें कह दी हैं. मैं भी आदरणीय के कहे से सहमत हूँ.
सादर
मित्र
गेय बनाना है यदि --एक मात्र कम है -- गेय बनाना है अगर
न समझे पाठक यदि - द० मात्र कम है - ना समझे पाठक अगर
ऐसा होता है कभी i पर आपके दोहे बहुत सुन्दर और भावपूर्ण है i सादर i
बहुत सुन्दर सीख सहित दोहे आदरणीय
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